भावार्थ:
समता में स्थित साधक जो इन्द्रियों के विषय में रमण नहीं करता, प्रकृति से प्राप्त पदार्थ का भोग नहीं करता और जिसमें किसी प्रकार की कामना शेष नहीं है, वह अपने लिये कुछ भी नहीं करता। उसके जो भी कार्य है वह सब प्रकृति और समाज की सेवा के लिये होते है।
“जो सम्पूर्ण कामनाओं का भलीभाँति त्याग कर देता है और अपने-आपसे, अपने-आपमें ही सन्तुष्ट रहता है, वह स्थिरबुद्धि कहा जाता है”। इस प्रकार कामना का त्याग और अपने-आपमें सन्तुष्ट रहने का वर्णन अध्याय २ श्लोक ५५ में हुआ है।
इन्द्रियों के विषयों में रसबुद्धि का होना (अध्याय २ श्लोक ५९ से अध्याय २ श्लोक ६०); इन्द्रियों के विषयों का चिंतन (प्रीति) होना (अध्याय २ श्लोक ६२ से अध्याय २ श्लोक ६५ तक); इन दोनों भावों को इस श्लोक में ‘रमण’ पद से कहा गया है।
जब मनुष्य ‘अपने लिये’ कुछ भी न करके ‘दूसरों के लिये’ अर्थात् माता, पिता, स्त्री, पुत्र, परिवारके लिये; समाजके लिये, देशके लिये और जगत के लिये सम्पूर्ण कार्यों को करता है, तब उसको समता का अनुभव होता है।
मनुष्य जब कुछ स्वादिष्ट पदार्थ का भोजन करता है, तो उसको उस पर्दाथ में प्रियता लगती है और ऐसा भाव होता है कि वह बहुत मात्रा में खा लेगा। परन्तु कुछ मात्रा में खा लेने के बाद उस स्वादिष्ट पदार्थ में प्रियता जाती रहती है, उसको ओर अधिक खाने की इच्छा नहीं रहती और वह खाना बंद कर देता है। खाना बंद करने पर तृप्ति का जो भाव होता है, वैसा ही भाव समता में स्थित साधक का हर समय रहता है। अतः साधक को भोग वस्तु का भोग करने की कोई इच्छा नहीं रहती और वह हमेशा तृप्त रहता है। संसारिक वस्तुओं से तृप्त साधक के पास अपने लिये कोई भी कार्य करने को नहीं रहता। उसके सभी कार्य समाज के लिये होते है।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]
Read MoreTo give feedback write to info@standupbharat.in
Copyright © standupbharat 2024 | Copyright © Bhagavad Geeta – Jan Kalyan Stotr 2024