श्रीमद भगवद गीता : १८

योगस्थित को कृत-अकृत से कोई प्रयोजन नहीं रहता, न किसी वस्तु पर आश्रित रहता है।

 

नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।

न चास्य सर्वभूतेषु कश्िचदर्थव्यपाश्रयः।।३.१८।।

 

योगस्थित महापुरुष का इस संसारमें कृत और अकृत से कोई प्रयोजन नहीं रहता है, तथा आत्मानुभूति में स्थित वह योगी स्वयं के लिये किसी भी वस्तु या व्यक्ति पर आश्रित नहीं होता। ||३-१८||

भावार्थ:

मनुष्य में कामना, ममता, आसक्ति, और भोग के वश, कुछ-न-कुछ करने की प्रवृत्ति रहती है। जब तक संसारिक वस्तु को प्राप्त करने की प्रवृत्ति रहती, तब तक मनुष्य का अपने लिये ‘करना’ शेष रहता ही है। परन्तु योग में स्थित महापुरुष में कोई भी कामना, ममता, आसक्ति, न रहने के कारण स्वयं के लिये कुछ भी करना शेष नहीं रहता और उसके समस्त कार्य धर्म पालन हेतु प्रकृति और समाज हित के लिये स्वतः ही होते हैं।

जो मनुष्य शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिसे अपना सम्बन्ध मानता है और आलस्य, प्रमाद आदिमें रुचि रखता है, वह कर्मों को नहीं करना चाहता; क्योंकि उसका प्रयोजन प्रमाद, आलस्य, आराम आदिसे उत्पन्न तामस-सुख प्राप्त करने का रहता है। परन्तु योग में स्थित महापुरुष, अपने शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि से कोई सम्बन्ध नहीं मानता है, और वह तामस सुखमें प्रवृत्त नहीं होता। इसी कारण उसके सामने जो भी कर्तव्य रूप कार्य आ जाते है उसे वह तत्परता से कर देता है।

अतः महापुरुष के लिये कार्य को करना अथवा न करना का कारण शास्त्र विधित मनुष्य धर्म होता है।

शरीर तथा संसार से किञ्चिन्मात्र भी स्वार्थ का सम्बन्ध न रहने के कारण उस महापुरुष की समस्त क्रियाएँ स्वतः दूसरों के हित के लिये होती हैं। जैसे शरीर के सभी अङ्ग स्वतः शरीर के हितमें लगे रहते हैं, ऐसे ही उस महापुरुष का अपना कहलाने वाला शरीर (जो संसार का एक छोटा-सा अङ्ग है) स्वतः संसार के हितमें लगा रहता है। उसका भाव और उसकी सम्पूर्ण चेष्टाएँ संसार के हितके लिये ही होती हैं। जैसे अपने हाथों से अपना ही मुख धोने पर अपने में स्वार्थ, प्रत्युपकार अथवा अभिमानका भाव नहीं आता ऐसे ही अपने कहलाने वाले शरीर के द्वारा संसार का हित होनेपर उस महापुरुष में किञ्चित् भी प्रत्युपकार अथवा अभिमानका भाव नहीं आता।

इस प्रकार समता में स्थित योगी किसी प्रकार भी संसारिक वस्तु या व्यक्ति पर निर्भर नहीं रहता।

सनातन धर्म पालन हेतु:

इस श्लोक में महापुरुषके लिये चार बातें कही हैं:

(१) अपने लिये कार्य करने से उसका कोई प्रयोजन नहीं रहता,

(२) कार्य को न करने से भी उसका कोई प्रयोजन नहीं रहता और

(३) किसी भी प्राणी और पदार्थसे उसका किञ्चिन्मात्र भी स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं रहता अर्थात् उनसे कुछ पाने का कोई प्रयोजन नहीं रहता।

(४) वह संसार में रहता हुआ निष्क्रिय नहीं रहता, अपितु समाज सेवा हेतु निश्चित रूप से कार्य करता है।

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