भावार्थ:
कोई भी कार्य सिमित काल के लिये होते है, परन्तु आसक्ति (अन्तःकरणमें) निरन्तर रहा करती है, इसलिये भगवान् ‘सततम् असक्तः’ पदोंसे निरन्तर आसक्तिरहित होनेके लिये कहते हैं। ‘मेरेको कहीं भी आसक्त नहीं होना है’ – ऐसी जागृति साधक को निरन्तर रखनी चाहिये। निरन्तर आसक्ति-रहित रहते हुए मनुष्य धर्म पालन हेतु जो भी कार्य सामने आ जाय उनको बहुत सावधानी, उत्साह तथा तत्परता से विधिपूर्वक करना चाहिये।
अतः आसक्तिरहित होकर जो समस्त कार्य धर्म पालन हेतु करता उस पुरषोत्तम को परम् आनन्द की प्राप्ति होती है।
योग में कर्म संसार के लिये होता है और योग अपने लिये। अर्थात साधक के सभी कार्य जैसे-जैसे स्वयं के लिये न हो कर संसार के लिये होते जाते है, वैसे-वैसे वह योग में स्थित होता जाता है।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]
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