भावार्थ:
गतिशील सृष्टि चक्र रूपी यज्ञ में कर्मों की आहुति देना ही मनुष्य धर्म है। कर्मों की आहुति किस प्रकार की हो, उसके लिये भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि मनुष्य के सभी कार्य संसार, समाज के कल्याण के लिये होने चाहिये। कर्मों को करते समय कर्मों से और कर्म को करने वाले शरीर से सम्बन्ध का त्याग करना चाहिये। सम्बन्ध का त्याग ही आसक्ति का त्याग है। पूयव श्लोक अध्याय ३ श्लोक १९ में कहा गया है कि आसक्तिरहित होकर मनुष्य धर्म का पालन करने से परमात्मा की प्राप्ति होती है।
इस सम्पूर्ण वक्तव्य की पुष्टि करने के लिये, इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण राजा जनक और अनेक अन्य महापुरषों (जो राजा जनक से पहले तथा बादमें हो चुके हैं) का उदाहरण देते है, जिन्होंने, मनुष्य धर्म का पालन करते हुए परमसिद्धि को प्राप्त किया। राजा जनका आदि अन्य राजाओं ने केवल दूसरों की सेवा के लिये, राज्य की रक्षा के लिये और उनको सुख पहुँचाने के लिये ही राज्य किया, अपने भोग के लिये राज्य नहीं किया।
क्योकि हे अर्जुन, तुम पुरषों में श्रेष्ठ हो, इसलिये तुम भी राजा जनक और अनेक अन्य महापुरषों के समान अपने कल्याण (परमात्मा की प्राप्ति) और लोकसंग्रह के लिए अपने धर्म का पालन करो।
श्लोक के सन्दर्भ मे:
सृष्टि चक्र रूपी यज्ञ के संरक्षण के लिये मनुष्य धर्म का पालन करना लोकसंग्रह है। समाज में मनुष्य धर्म का पालन पूर्ण रूप से हो, उसमें किसी प्रकार की त्रुटि न आये, उसके लिये हर मनुष्य और श्रेष्ठ मनुष्य का विशेष रूप से दायित्व है की वह पूर्ण रूप से मनुष्य धर्म का पालन करे। यह ही लोकसंग्रह (समाज में मनुष्य धर्म का पतन न हो) के लिए मनुष्य धर्म का पालन करना है।
मनुष्य में यह वैचारिक विषमता होती है कि जब मनुष्य कामना का त्याग करता है तब शरीर से सम्बन्ध (आसक्ति) रहने के कारण वह आलस्य में पड़ जाता है। वह विचार करता है की जब मुझे स्वयं के लिये कुछ करना ही नहीं तो मेरे लिये कोई कार्य भी नहीं है। मनुष्य को जब यह तत्व ज्ञान होता है कि वह शरीर नहीं है, और शरीर के द्वारा होने वाले कार्य का कारण परमात्मतत्व है, तब भी मनुष्य को भ्रम होता है की जब वह कर्ता नहीं है तो उसके के लिये कोई कार्य नहीं है। ऐसा होने पर मनुष्य अपने मनुष्य धर्म पालन से च्युत हो जाता है।
यह ही भाव अर्जुन के मन में उत्त्पन्न होता है जब वह (अध्याय ३ श्लोक १) कहते है कि हे केशव! आप मुझे घोर कर्मों में क्यों लगते हो।
कामना एवं आसक्ति का त्याग करने के लिये मनुष्य को कार्य करने की अनिवार्यता बनी रहती है। और इस का कारण है – मनुष्य धर्म पालन, जिसका वर्णन अध्याय ३ श्लोक १० से अध्याय ३ श्लोक १८ में हुआ। जो योग साधना में रत है, जो महापुरुष है, उनके द्वारा मनुष्य धर्म का पालन न करने से समाज का पतन होता है, अतः अनिवार्य है, इसका वर्णन अध्याय ३ श्लोक २० से अध्याय ३ श्लोक २६ तक में हुआ है।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]
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