लोकसंग्रह – श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य मनुष्य भी वैसा ही अनुसरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, दूसरे मनुष्य भी उसका अनुसरण करते हैं। ||३-२१||
भावार्थ:
मनुष्य मूलतः अनुसरण करने वाला प्राणी है। यदि किसी राष्ट्र का शासक भ्रष्ट और अत्याचारी हो तो निम्न पदों के अधिकारी सत्य और ईमानदार नहीं हो सकते। छोटे बालकों का व्यवहार पूर्णत: उनके मातापिता के आचरण एवं संस्कृति द्वारा निर्भर और नियन्त्रित होता है। इतिहास के किसी काल में, जब-जब समाज का पतन हुआ है, तब-तब उसका कारण राष्ट्र के शासक, उसके बुद्धिजीवी के विचार और आचरण कारण रहे है। समाज के पुनरुत्थान में भी केवल राष्ट्र के नेतृत्व करने वाले व्यक्तियों के आदर्श और आचरण कारण रहे है। साधारण मनुष्य समाज का नेतृत्व करने वालों का अनुसरण करते है।
समाजिक दृष्टि से श्रेष्ठ मनुष्य वही है, जो स्वयं को और संसार से मिले हुए पदार्थ को दूसरों की सेवा में लगता है। उसके सभी कार्य सम्पूर्ण समाज के कल्याण के लिये होते है। श्रेष्ठ मनुष्य कार्य स्वार्थ पूर्ति के लिये नहीं होते। व्यक्तिगत जीवन में भी वह आदर्श प्रस्तुत करते है। उसके आचरण सदा शास्त्र मर्यादा के अनुकूल ही होते हैं।
साधारण मनुष्य और समाज उन लोगो की वंदना करते है, जिन्होंने निःस्वार्थभाव से समाज के लिये कुछ न कुछ किया है। समाज उन लोगो की वंदना नहीं करता जिन्होंने अपने स्वार्थ पूर्ति, भोग के लिये ही जीवन व्यापन किया हो। समाज में प्रतिष्ठित मनुष्य, जो स्वार्थी और भोगी हो, उसका साधारण मनुष्य अनुसरण तो कर लेता है, पर वंदना नहीं करता।
अर्जुन का युद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व का जीवन आदर्श पूर्ण व्यतीत हुआ था, और वह श्रेष्ठ पुरुष के समान वन्दनीयें था। अतः पूर्व श्लोक (अध्याय ३ श्लोक २०) में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को अपने धर्म का पालन करने के लिये इसलिये भी कहते है, क्योकि साधारण मनुष्य उसका अनुसरण करते है।
श्लोक के सन्दर्भ मे:
जो मनुष्य, स्थिर बुद्धि, समता युक्त और ‘स्थितप्रज्ञ’ पद से परिभाषित, पूर्व श्लोकों हुआ है, वह श्रेष्ठ मनुष्य है। जो मनुष्य कामना, आसक्ति, (ममता, अहंकार) रहित रहे कर मनुष्य धर्म का पालन करता है वह श्रेष्ठ मनुष्य है।
श्रेष्ठ मनुष्य वही है, जो संसार-(शरीरादि पदार्थों -) को और ‘स्वयं’-(अपने स्वरूप-) को तत्वसे जनता है| उसका यह स्वाभिक अनुभव होता है कि शरीर, इन्द्रियाँ मन, बुद्धि, धन, कुटुम्ब, आदि पदार्थ संसार के हैं, स्वयं के नहीं। संसारसे मिले हुए पदार्थ को दूसरों की सेवामें लगाना धर्म है। उनका उपभोग करना अथवा अपना अधिकार मानना अधर्म है। सम्पूर्ण प्राणियोंके हित में उसकी स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है।
‘देने’ के भाव से समाज में एकता, प्रेम उत्पन्न होता है और ‘लेने’ के भाव से समाज में संघर्ष उत्पन्न होता है। शरीर को ‘मैं’, ‘मेरा’ अथवा ‘मेरे लिये’ मानने से ही ‘लेने’ का भाव उत्पन्न होता है। शरीर से अपना कोई सम्बन्ध न मानने के कारण श्रेष्ठ मनुष्य में ‘लेने’ का भाव किंचिन्मात्र भी नहीं होता।
जिसके अन्तःकरण में कामना, ममता, आसक्ति, स्वार्थ, पक्षपात आदि दोष नहीं हैं और कुछ भी लेनेका भाव नहीं है, ऐसे मनुष्य के द्वारा कहे हुए वचनों का प्रभाव दुसरों पर स्वतः पड़ता है और वे उनके वचनानुसार स्वयं आचरण करने भी लग जाते हैं।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]
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