श्रीमद भगवद गीता : २२

स्वयं श्रीकृष्ण लोकसंग्रह के लिये कर्तव्य कर्मों में लगे रहते हैं।

 

न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन।

नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ।।३-२२।।

 

मुझे तीनों लोकोंमें, स्वयं के लिये न तो कुछ कार्य है, न कुछ प्राप्त करनेयोग्य वस्तु, परन्तु फिर भी मैं लोकसंग्रह के लिये कर्तव्यकर्ममें ही लगा रहता हूँ। ||३-२२||

भावार्थ:

जनकादि राजाओं का उदहारण देने के पश्चात भगवान श्रीकृष्ण स्वयं का उदहारण देते है। जनकादि तो पूर्ण काल के है जिनकी श्रुतियाँ ही प्राप्त है परन्तु श्रीकृष्ण का उदहारण तो प्रत्यक्ष का है, इस क्षण का है।

अर्जुन और श्रीकृष्ण का तो मित्रता का सम्बन्ध है और अर्जुन को भगवान श्री कृष्ण का समीप्य प्राप्त रहा है, तो इस कारण उनसे अच्छा उदहारण क्या होगा।

भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि- योग में स्थित रहने के कारण, मुझे न तो संसार की किसी वस्तु की कामना है, न ही स्वयं (प्राप्त शरीर) के भोग पूर्ति के लिये कोई कार्य। फिर भी मैं कर्तव्य-कर्मों को करता हूँ। कर्मों का न त्याग करता हूँ, न उपेक्षा।

भगवान् सदैव कर्तव्यपरायण रहते हैं, कभी कर्तव्यच्युत नहीं होते। अतः भगवत्परायण साधक को भी कभी कर्तव्यच्युत नहीं होना चाहिये। कर्तव्यच्युत होने से ही वह भगवत्तत्त्व के अनुभव से वञ्चित रहता है। नित्य कर्तव्य-परायण रहने से साधक को भगवत्तत्त्व का अनुभव सुगमता-पूर्वक हो सकता है।

श्लोक का परिपेक्ष्य:

यह श्लोक भगवान श्रीकृष्ण ने मनुष्य रूप से कहा है।

मनुष्य को जीवन काल में, भूलोक मे रहते हुए अनेक प्रकार के पदार्थों की कामना रहती है। और मृत्यु उपरांत वह स्वर्ग लोक को प्राप्त करने कि कामना करता है। इसी सन्दर्भ में भगवान श्री कृष्ण कहते है कि, मुझे तीनों लोकों मे, स्वयं के लिये न तो कुछ कार्य है, न कुछ प्राप्त करने योग्य वस्तु।

भगवान् ने यह श्लोक इसलिए नहीं कहा कि वह तीनों लोकों के स्वामी हैं, इसलिए उनको कुछ भी कार्य नहीं है और कुछ भी प्राप्त करने योग्य वस्तु। अपितु इसलिए कहा कि, मनुष्य रूप में, योग मे स्थित और तत्व ज्ञान होने के कारण, उनको न तो कामना पूर्ति के लिये कोई कार्य है और न ही कोई वस्तु प्राप्त करने की कामना।

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