श्रीमद भगवद गीता : २३

श्रीकृष्ण कर्तव्य तत्पर्ता से न करे तो लोकसंग्रह की बड़ी हानि हो जाय।

 

यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः।

मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।३-२३।।

 

हे पार्थ! यदि मैं किसी समय सावधान (तत्पर्ता) होकर कर्तव्यकर्म न करूँ तो लोकसंग्रह की बड़ी हानि हो जाय; क्योंकि मनुष्य सब प्रकारसे मेरे ही मार्गका अनुसरण करते हैं। ||३-२३||

भावार्थ:

भगवान श्रीकृष्ण ने मनुष्य रूप में अति धर्म परायण राजा वासुदेव के पुत्र के रूप में जन्म लिया था। यदि भगवान कृष्ण अपने निर्धारित वैदिक कर्मों का निर्वाहन नहीं करते, तब साधारण मनुष्य भी उनका अनुसरण यह सोचकर करता कि उनका उल्लंघन करना एक सामान्य प्रथा है।

अतः भगवान श्रीकृष्ण अपना उदहारण देते हुये अर्जुन को कहते हे की मैं बहुत ही सावधानी पूर्वक प्राप्त कर्तव्यों के प्रति दृष्टि रखता हूँ और जैसे ही मेरे कर्तव्य मुझको प्राप्त होते है, मैं उनको उत्साह एवं तत्परतासे, आलस्य और प्रमाद आये बिना, साङ्गोपाङ्ग (शास्त्र विधि पूर्वक) से करता हूँ।

यदि मैं अपने धर्मों का पालन न करू तो लोकसंग्रह में बहुत हानि हो जायेगी। कारण की वासुदेव पुत्र और राजा के रूप में साधारण मनुष्य मेरा ही अनुसरण करते है।

श्लोक के सन्दर्भ मे:

मनुष्य की कामना में तो अनेक बुद्धि होती है और वह कामना पूर्ति के लिये नित नय-नय कार्य करता है। परन्तु जब कामना का त्याग होता है, तब मनुष्य का ध्यान अपने कर्त्तव्यों पर नहीं जाता और वह शरीर की आसक्ति वश आलस्य में बैठा रहता है। अतः भगवान श्रीकृष्ण अपना उदहारण देते हुये कहते हे की मनुष्य को प्राप्त कर्तव्यों के प्रति सतर्कता और सावधानी रखनी चाहिये के किसी भी कारण वश वह कर्तव्यच्युत न हो जाय।

मनुष्य का धर्म, कामना, ममता, स्वार्थ आदि का त्याग करके दूसरों के हित के लिये कार्य करना है। समाज में जो माने  हुए सम्बन्ध है वे उनकी सेवा (हित) करने के लिये ही हैं। मनुष्य को उन सम्बन्धों (पिता, पुत्र, पत्नी, भाई बहन, समाज, देश) के अधिकार की रक्षा करते हुए अपने-अपने कर्तव्य का पालन करना है। इस भावना से ही मनुष्य का उद्धार है और समाज का कल्याण।

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