श्रीमद भगवद गीता : २५

विद्वान भी लोकसंग्रह के लिये अज्ञानी के समान कर्तव्यकर्म करे।

 

सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।

कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्िचकीर्षुर्लोकसंग्रहम्।।३-२५।।

 

हे भारत! कर्ममें आसक्त हुए अज्ञानीजन जिस प्रकार कर्तव्य कर्म को करते हैं, आसक्तिरहित विद्वान भी लोकसंग्रह के लिए उसी प्रकार कर्तव्य कर्म करे। ||३-२५||

 

भावार्थ:

जिन मनुष्यों की शास्त्र, शास्त्र-पद्धति और शास्त्र-विहित शुभकर्मों पर पूरी श्रद्धा है एवं शास्त्रविहित कर्मोंका फल अवश्य मिलता है – इस बातपर पूरा विश्वास है. जो न तो तत्वज्ञ हैं और न दुराचारी हैं; किन्तु कर्मों, भोगों एवं पदार्थों में आसक्त हैं, ऐसे मनुष्य शास्त्रों के ज्ञाता होनेपर भी केवल कामनाके कारण अज्ञानी कहे गये हैं।

ऐसे  अज्ञानीजन कर्मोंमें कभी प्रमाद, आलस्य आदि न रखकर सावधानी और तत्प्रतापूर्वक सांगोपांग विधि से कर्म करते है; क्योकि उनकी ऐसी मान्यता रहती है की कर्मों को करने में कोई कमी आ जानेसे उनके फलमें भी कमी आ जायगी।

ऐसे अज्ञानी मनुष्य सुख दुःख में तो बँधे रहते है, परन्तु क्योकि वह शास्त्र-विहित शुभकर्मों को सावधानी और तत्प्रतापूर्वक करते है जो समाज और संसार के लिये कल्याणकारक है, इसलिये भगवान उनके इस प्रकार की क्रिया करनेकी रीती को सही मानते हुए समता युक्त महापुरुष को इसी विधि से लोकसंग्रहके अथार्त दूसरोंके हित के लिये कार्य करने की प्रेरणा करते हैं।

जिसमें कामना, ममता, आसक्ति, वासना, पक्षपात, स्वार्थ आदिका सर्वथा आभाव हो गया है और शरीरादि पदार्थों के साथ किंचिन्मात्र भी लगाव नहीं रहा, ऐसे समता युक्त महापुरुष को यहाँ विद्वान् कहा गया है।

प्राकृत पदार्थमात्रसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जानेके कारण उस ज्ञानी महापुरुषके कहलानेवाले शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि भी ‘लोकसंग्रह’ पदमें आये ‘लोक’ शब्दके अन्तर्गत आते हैं। दूसरे लोगोंको ऐसे ज्ञानी महापुरुष लोकसंग्रहकी इच्छावाले दीखते हैं, पर वास्तवमें उनमें लोकसंग्रहकी भी इच्छा नहीं होती। कारण कि वे संसारसे प्राप्त शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ, पद, अधिकार, धन, योग्यता, सामर्थ्य आदिको साधनावस्थासे ही कभी किञ्चिन्मात्र भी अपने और अपने लिये नहीं मानते, प्रत्युत संसारके और संसारकी सेवाके लिये ही मानते हैं, जो कि वास्तवमें है। वही प्रवाह रहनेके कारण सिद्धावस्थामें भी उनके कहलानेवाले शरीरादि पदार्थ स्वतः स्वाभाविक, किसी प्रकारकी इच्छाके बिना संसारकी सेवामें लगे रहते हैं।

ज्ञानी पुरुषको प्राणिमात्रके हितका भाव रखकर सम्पूर्ण लौकिक और वैदिक कर्तव्य-कर्मोंका आचरण करते रहना चाहिये।

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