श्रीमद भगवद गीता : २८

बुद्धियुक्त त्रिगुण और कर्म को तत्वसे जानकर आसक्त नहीं होता।

 

तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।

गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ।।३-२८।।

 

परन्तु हे महाबाहो! गुण और कर्म-विभागको तत्त्वसे जाननेवाला बुद्धियुक्त महापुरुष ‘सम्पूर्ण गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं’, ऐसा मानकर उनमें आसक्त नहीं होता। ||३-२८||

भावार्थ:

अहंकार क्या है और किस कारण से है, इसका वर्णन अध्याय ३ श्लोक २७ में विस्तार से हुआ है। अतः जो महापुरुष शरीर से होने वाली क्रियाओं को और उनके कारण (मनुष्य प्रकृति और गुण) को ठीक-ठीक जानता है, वह शरीर और शरीर की क्रिया से सम्बन्ध नहीं जोड़ता।

श्लोक के सन्दर्भ मे:

इस श्लोक में अर्जुन को महाबाहो पद से सम्बोधित किया है। इस का अर्थ यह नहीं है कि सच्चा और वीर पुरुष वह ही है जो किसी युद्ध में शत्रुओं पर विजय प्राप्त करे। अपितु वह भी है जो निरन्तर मन में चल रहे युद्ध का अथक सामना करते हुये आसक्तियों के ऊपर पूर्ण विजय प्राप्त करे। कर्म के युद्धक्षेत्र में परिस्थितियों पर आधिपत्य स्थापित करते हुये समस्त दिशाओं से आने वाले आसक्तियों के बाणों के समक्ष आत्मसमर्पण न करते हुये जो कर्म करता है वही अपराजेय अमर वीर है।

इस का दूसरा अर्थ यह भी है की शक्ति रूप से जो गुण तुम अपना समझ रहे हो, वो वास्तविकता में प्रकृति का गुण है। अतः इस पर अहंकार मत कर।

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