भावार्थ:
सब कार्य प्रकृति के लिये होने के उपरान्त भी मनुष्य का अहंकार (मैं कर्ता हूँ) बना ही रहता है। जब तक मनुष्य का यह अहंकार लुप्त नहीं होता तब तक मनुष्य का शरीर से सम्बन्ध बना रहता है और मनुष्य सुःख-दुःख से बंधा रहता है।
अतः भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि हे अर्जुन तुम कर्ता भाव से सन्यास (त्याग करो) लो। अर्थात कर्ता भाव का त्याग करो। और अपने विवेक के दुवारा समस्त कार्यों को श्रद्धा पूर्वक परमात्मा के अर्पण कर दो। अर्थात ऐसा विचार करो कि सभी समस्त कार्य परमात्मा की कृपा, आशीर्वाद और प्रेणना से होते है। जिस प्रकार संसार-मात्रकी सम्पूर्ण क्रियाओंमें केवल परमात्मतत्व की शक्ति ही काम कर रही है, उसी प्रकार परमात्मा से प्राप्त शरीर की सभी क्रियाएं में केवल परमात्मतत्व की शक्ति ही काम कर रही है।
‘मैं कार्य को करता हूँ’ – मनुष्य जब इस अहंकार भाव से सत कार्य करता है, तब उसमें यह आशा रहती है कि अन्य लोग (जिनको मुझ से सुख पंहुचा) भी भविष्य में सुख देंगे, मेरा मान-सम्मान करेंगे। यह आशा पुनः दुःख का कारण बनती है।
मनुष्य को इस बात की भी आशा रहती है की भविष्य में मेरे को स्वर्ग की प्राप्ति होगी और इसको वह अपना कल्याण मानता है।
आशा सदैव भविष्य के लिए होती है और निर्मम अहंकार भूतकाल में घटित हुई घटनाओं एवं उपलब्धियों से होता है। अत अहंकार भूतकाल की प्रतिच्छाया मात्र है और आशा भविष्य में उत्तपन्न होने वाला फल। आशा और अहंभाव में रहने का अर्थ है भविष्य और भूतकाल में ही जीना। अतः इस श्लोक में आशा का भी त्याग कहा गया है।
जब अहंकार का पूर्ण रूप से त्याग हो जाता है तब मनुष्य शुद्ध सन्यास एवं मोक्ष को प्राप्त होता है। सन्यास कर्ता भाव का है कार्य का नहीं।
अतः सन्यास का अर्थ – कामना, ममता, आसक्ति, आशा और अहंकार का त्याग है। परन्तु इन सब त्याग के साथ मनुष्य को संसारिक कार्यों को लोक कल्याण के लिये आवश्य करने चाहिये। कार्यों का त्याग होता है तो मनुष्य में आसक्ति बनी रहती है।
श्लोक के सन्दर्भ मे:
करण – क्रिया करने वाला – ‘शरीर, बुद्धि, मन, इन्द्रियाँ’।
उपकरण – क्रिया करने में उपयोगी सामग्री – जिनको लेकर या जिसके लिये क्रिया होती है अथार्थ – ‘संसारिक प्रदार्थ’
कर्ता – स्वयं (आत्मस्वरुप) को करण मान लेना।
साधक प्रायः उपकरणों को तो भगवान का मानने की चेष्टा करता है, पर करण (शरीर, बुद्धि, मन, इन्द्रियाँ) भी भगवान के हैं – इसपर ध्यान नहीं देता। वह ‘करण’ स्वयं को मानलेता हैं, जो की बहुत बड़ी भूल हैं। ‘करण’ और स्वयं एक नहीं हैं और दोनों ही भगवान के हैं।
करण और उपकरण के संयोग से क्रिया होती है जो प्रकृति का कार्य है। परन्तु जब स्वयं करण और उपकरण के साथ सम्बन्ध जोड़ कर, कर्ता का भाव कर लेता तब वह क्रिया कर्म का रूप ले लेती है। अतः कर्तापन होने से ही कर्मों का संग्रह होता है।
जब मनुष्य पानेकी इच्छा से अपने लिये कार्य करता है, तब उसका कर्तापन दृढ़ हो जाता है। क्योंकि मनुष्य को लगता है की मेने चाहा, मेने किया और मुझे मिला। इन सब मे मैं पन दिखता है।
जब कर्मयोगी पानेकी इच्छा का त्याग करके केवल यज्ञ के लिये अर्थात दूसरों के हित के लिये कार्य करता है, तब उसका कर्तापन दूसरों के लिये होता है। अर्थात मेने चाहा, और मुझे मिला नहीं रहता। मेने किया का भाव फिर भी रह जाता है जिसको भगवान अर्पण के द्वारा समाप्त करने की प्रेणना देते है।
श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि तुम सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्मों को मेरे अर्पण कर दो। अर्थात करण को कर्ता (स्वयं) का न मान कर भगवान का माने और ऐसा भाव रखे की सभी कार्य भागवत कृपा से हो रहे है। क्योंकि संसार प्रकृति का कार्य है और भगवान प्रकृति के स्वामी हैं।
श्लोक का परिपेक्ष्य:
अर्पण से भगवान की प्रसन्ता – प्राकृतिक प्रदार्थ को अपनी या अपने लिये न मान कर, प्रकृति की सेवा में लगाने से भगवान का सृष्टि चक्र सुचारु रूप से चलता है और मनुष्य का कल्याण होता हैं।
जैसे मनुष्य पृथ्वी में जितने बीज बोये तो उससे कई गुणा अधिक अन्न पृथ्वी देती है; अन्न को अपने निर्वाह मात्र के लिये रखकर संसार को अर्पित करने से अन्य प्राणियों का कल्याण होता हैं। जब समस्त प्राणी अपना-अपना स्वधर्म कर्तव्य कर्म करते हुए फल सवरूप प्राप्त प्रदार्थ को पुनः संसार को अर्पित करते है, तो समस्त संसार का कल्याण होता हैं। अन्यथा प्राकृतिक प्रदार्थो का संग्रह और दोहन से प्राकृतिक आपदा, वमनस्ये बढ़ती हैं जो किसी के लिय भी शुभ नहीं हैं।
सृष्टि चक्र का सुचारु रूप से चलना ही भगवान की प्रसन्ता हैं।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]
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