श्रीमद भगवद गीता : ३१

महापुरुष के विचार में श्रद्धा करने से ही मनुष्य का कल्याण है।

 

ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः।

श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः ।।३-३१।।

 

जो मनुष्य दोष-दृष्टि से रहित (अनसूयन्त:) और श्रद्धापूर्वक मेरे इस (पूर्वश्लोकमें वर्णित) मत का सदा अनुष्ठानपूर्वक पालन करते हैं, वे कर्मोंके बन्धनसे मुक्त हो जाते हैं। अर्थात कल्याण होता है। ||३-३१||

भावार्थ:

अध्याय ३ श्लोक १ एवं अध्याय ३ श्लोक २ में अर्जुन का प्रश्न था की कर्म और बुद्धि ज्ञान में से क्या कल्याण कारक है। इस के उत्तर में भगवान श्रीकृष्ण ने अध्याय ३ श्लोक ३ से अध्याय ३ श्लोक ३० तक पूर्ण रूप से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है इसका वर्णन किया।

अब इस श्लोक में पूर्व श्लोकों में वर्णित सिद्धान्त की सम्पूर्णता करते हुए भगवान श्री कृष्ण विश्वास दिलाते है की जो मनुष्य मेरे सिद्धान्त में दोष-दृष्टि से रहित होकर,और श्रद्धा पूर्वक, पूर्ण रूप से सदा मेरे सिद्धान्त का अनुसरण करता है वह संसार के बन्धन से मुक्त हो जाता है।

श्लोक का परिपेक्ष्य:

श्रद्धा  – शास्त्र और गुरु के वाक्यों में वह विश्वास जिसके द्वारा सत्य का ज्ञान होता है श्रद्धा कहलाता है। यहाँ किसी प्रकार के अन्धविश्वास को श्रद्धा नहीं कहा गया है वरन् बुद्धि की उस सार्मथ्य को बताया गया है जिससे सत्य का ज्ञान होता है। बिना विश्वास के किसी कार्य में प्रवृत्ति नहीं होती।

‘अनसूयन्त:’ और ‘श्रद्धा’ पद का वर्णन करने से भगवान का अपने प्रति विश्वास कराने का नहीं है, न ही उनकी अपने मत के प्रति किसी प्रकार की अहंता है। अपिंतु साधक की साधना को सिद्ध कराने का है।

मत पर दोष-दृष्टि रख कर और श्रद्धा के आभाव के साथ, मनुष्य जब किसी मत का अनुसरण करता है तो उस भाव से किये गये कार्य में सफलता नहीं मिलती। असफलता होने पर मनुष्य सोचता है की सिद्धान्त में कमी है, परन्तु सत्य यह होता की मनुष्य की साधना में कमी होती है।

दोष-दृष्टि से भगवान का तत्प्रय यह भी है की मनुष्य अपने बुद्धि में अनेक प्रकार के शास्त्र विधि, पद्धति आदि से भ्रमित न हो। अध्याय के आरम्भ में अर्जुन का प्रश्न की कर्म और बुद्धि ज्ञान में से क्या कल्याण कारक है, धर्म क्या है – धर्म क्या है, इस बात को दर्शाता है की समाज में अनेक प्रकार के कल्याण रूपी विचार प्रचलन में है जो आपस में विरोधाभास उत्तपन्न करते है। अतः भगवान श्री कृष्ण ने श्रीमद भागवत गीता के रूप में एक पूर्ण सिद्धांत प्रस्तुत किया जो अनेक विचारों को सही प्रकार से समावेश करता है।

भगवान् का यह मत है की विद्वान् लोग सांख्य पद से जो योग कहते है वह योग की कोई अन्य पद्धतीति नहीं है अपितु यह एक साधना है जो योग में स्थित होने में सहायक होती है। बुद्धि ज्ञान प्राप्त होने से मनुष्य योग में स्थित होने के आचरण को सुगमता से पाता है। मूलतः साधक को मनुष्य धर्म के रूप में प्राप्त कर्तव्यों को लोक कल्याण के लिये करना ही है।

अंतिम अध्याय ३ श्लोक ३० में जो अर्पण पद आया है वह भक्ति योग साधना का भाग है। जिस का विश्लेषण आगे के अध्याय में हुआ है।

अतः योग साधना का आरम्भ सांख्य से होता है और अंत भक्ति से होती है और बीच में कर्म योग है।

सारांश में सिद्धान्त की मूल बाते  इस प्रकार है।

१. शरीर-शरीरी; प्रकृति-परममात्मा, इनके सम्बन्धों, गुणों का ठीक-ठीक ज्ञान होना, सभी कार्य प्रकृति में हो रहे है, इस प्रकार का विवेक होना, आदि सांख्य योग है जिससे विवेक की जागृति होती है।

२. मनुष्य के जितने भी कार्य है वह सब सृष्टि चक्र रूपी यज्ञ,- लोक कल्याण के लिये है। इन कर्तव्य रूपी कार्यों को करना ही मनुष्य का स्वधर्म है – मनुष्य धर्म है।

३. राग-द्वेष, एवं अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति में समता का भाव रखना।

४. कामना, ममता, भोग और संग्रह का पूर्ण रूप से त्याग। इस त्याग को करने में प्रकति-समाज की सेवा, अर्थात मनुष्य धर्म का पालन करना सहायक है।

५. अन्तःकरण को नियमित करना, इन्द्रियों के विषयों का भोग न करना। अन्तःकरण को नियमित करने में प्रकति-समाज की सेवा, अर्थात मनुष्य धर्म का पालन करना सहायक है।

६. अन्तःकरण को नियमित करने के लिये ध्यान योग का अभ्यास करना।

७. प्राप्त कर्तव्य-कर्मों की सिद्धि-असिद्धि में समता रखना। अथार्त कर्तव्य-कर्मों की पूर्णता होने पर ख़ुशी और अपूर्णता पर दुःखी नहीं होना।

८.  कर्तव्य-कर्मों से प्राप्त फल की कामना न करना और प्राप्त फल को अपने लिये न मानना।

९.  आसक्ति का त्याग कर प्राप्त कर्तव्य-कर्मों को तत्परता से करना।

१०. कर्तव्य-कर्मों और उसके फल में अहंता न रखना। अथार्त कर्तव्य-कर्मों को भगवान को अर्पण करते जाना और प्राप्त फल को परममात्मा की कृपा मानना। यह भक्ति योग है।

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