भावार्थ:
१. कामना के बिना मनुष्य का कार्य कैसे चलेगा और वह करेगा ही क्यों?
२. ममता का सर्वथा त्याग तो हो ही नहीं सकता ?
३. संसार में जब सभी स्वार्थी है तो मनुष्य केवल निर्वाह बुद्धि से प्रकृति पदार्थ का उपयोग कैसे करेगा?
४. प्रकृति पदार्थ का संग्रह नहीं करेगा तो आपत्ति काल में पदार्थ कहा से उपल्ध होंगे ?
५. मनुष्य ने नाना प्रकार के अविष्कार कर अपने जीवन को सुरक्षित और सुखमय बनाया है तो वह कैसे सब कार्य का हेतु भगवान को कैसे माने?
६. ज्ञान योग करे, या कर्मयोग या भक्ति योग? इनमे से कोनसा श्रेष्ठ है।
७. धर्म क्या है – अधर्म क्या है?
इस प्रकार और अनेक विषयों एवं सिद्धांतों से मनुष्य ग्रसित है। वह श्रीमद भागवत गीता के सिद्धांत को भी दोष-दृष्टि से देखता है।
भगवान ने ऐसे मनुष्य को ‘सर्वज्ञानविमूढान’ पद से कहा है। अथार्त अपने बुद्धि ज्ञान में ही मोहित होना। भगवान ने ‘अचेतसः’ पद से ऐसे मनुष्य का विवेक अचेत बताया है।
ऐसे मनुष्य का पतन होता ही है। अथार्त वह सुख-दुःख रूपी जीवन में बँधा ही रहता है।
विचार की बात यह है की अपने मत से चलता हुए कुछ मनुष्य को क्षणिक पल के लिये तो सुख की अनुभूति होती है। परन्तु समाज और प्रकृति में अभिचार, अव्यवस्था, राग-द्वेष, प्रकृति आपदाये निरंतर बढ़ रही है। ऐसा लगता है की मनुष्य सृष्टि के पूर्ण विनाश की और अग्रसर होता ही जा रहा है।
इस श्लोक में भगवान का अहंकार भाव देखना पुनः मूढ़ता ही है। यह श्लोक सिद्धांत की शुद्धता को दर्शाता है।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]
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