श्रीमद भगवद गीता : ३५

परधर्म की अपेक्षा गुणरहित स्वधर्म का पालन श्रेयष्कर है

 

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।

स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ।।३-३५।।

सम्यक् प्रकार से अनुष्ठित परधर्म की अपेक्षा गुणरहित स्वधर्म का पालन श्रेयष्कर है; स्वधर्म में मरण कल्याणकारक है (किन्तु) परधर्म भय को देने वाला है। ||३-३५||

 

भावार्थ:

अध्याय २ श्लोक ३१ मे भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि स्वधर्म ही कर्तव्य कर्म है और मनुष्य को अपने स्वधर्म का ही पालन करना चाहिये। इस श्लोक मे भी भगवान पुनः कहते है की अपने स्वधर्म पालन हेतु अगर मृत्यु भी प्राप्त हो तो वह कल्याण कारक है।

पहले अध्याय में भी जब अर्जुन ने कहा की युद्ध करने से पाप ही लगेगा, तब भगवान ने कहा कि धर्ममय युद्ध न करने से तू स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पापको प्राप्त होगा (अध्याय २ श्लोक ३३)। फिर भगवान ने बताया कि जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःखको समान समझकर (राग-द्वेष रहित होकर), अपने स्वधर्म का पालन करने से पाप नहीं लगता (अध्याय २ श्लोक ३८)।

मनुष्य को प्राय विकट परस्थिति में अपने स्वधर्म की अपेक्षा दूसरे के धर्म श्रेष्ठ लगते है। अर्जुन भी युद्ध (स्वधर्म) की अपेक्षा भिक्षा का अन्न खाकर (परधर्म) जीवन निर्वाह करने को श्रेष्ठ समझते हैं (अध्याय २ श्लोक ५)। परन्तु यहाँ भगवान अर्जुन को समझाते हैं कि भिक्षाके अन्नसे जीवननिर्वाह करना भिक्षुकके लिये स्वधर्म होते हुए भी तेरे लिये परधर्म है। अपने स्वधर्म में कार्य कुशलता होने से आप उस कार्य को अति कुशलता से कर सकते हो, चाहे कार्य में मृत्यु ही क्यों न आ जाय। ऐसा कुशल कार्य समाज के कल्याण के साथ स्वयं के लिये भी कल्याणकारक है। अपने स्वधर्म में द्वेष भाव होने के कारण ही मनुष्य परधर्म को अपनाता है जो की बाँधने वाला है।

परन्तु जब मनुष्य परधर्म को अपनाता है तो उस कार्य को करने में कुशलता ने होने से वह कार्य भय देने वाला होता है। कुशलता ने होने से वह कार्य समाज के लिये कल्याण करने वाला नहीं होता।

परधर्म भयावह इसलिये भी है क्योंकि उसका आचरण शास्त्र-निषिद्ध और दुसरेकी जीविका को छीनने वाला है।

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