श्रीमद भगवद गीता : ३६

किस कारण वश मनुष्य पाप का आचरण करता है?

 

अर्जुन उवाच

अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः।

अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ।।३-३६।।

 

अर्जुन ने कहा: हे वार्ष्णेय! फिर यह मनुष्य बलपूर्वक बाध्य किये हुये के समान अनिच्छा होते हुये भी किसके द्वारा प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है? ||३-३६||

 

भावार्थ:

 

अर्जुन प्रश्न करते है कि जब कर्तव्य कर्म ही मनुष्य के लिये कल्याण करने वाला और बन्धन से मुक्ति देने वाला है, तो वह क्या कारण है जिसके आकर्षण वश मनुष्य वह-वह कार्य ही करता है जो पाप को देने वाला है?

श्लोक के सन्दर्भ मे:

कोई भी मनुष्य ऐसा नहीं है जिसे कुछ मात्रा में ही सही अच्छे और बुरे का पुण्य और पाप का ज्ञान न हो। बुद्धि से प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि पुण्य क्या है किन्तु जब कर्म करने का समय आता है तब पाप में ही उसकी प्रवृत्ति होती है। यह एक दुर्भाग्य पूर्ण विडम्बना है।

विचारवान् पुरुष पाप नहीं करना चाहता; क्योंकि पापका परिणाम दुःख होता है और दुःखको कोई भी प्राणी नहीं चाहता। विचारशील मनुष्य पाप करना तो नहीं चाहता, पर भीतर सांसारिक भोग और संग्रहकी इच्छा रहनेसे वह करनेयोग्य कर्तव्य कर्म नहीं कर पाता और न करनेयोग्य पाप-कर्म कर बैठता है।

PREVIOUS                                                                                                                                       NEXT

धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष

धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]

Read More

अध्याय