श्रीमद भगवद गीता : ३७

कामना और क्रोध ही महाशना और महापापी है

 

श्री भगवानुवाच

काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः।

महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम् ।।३-३७।।

 

 

श्रीभगवान् ने कहा: रजोगुण से पुष्ट हुई ‘कामना’, और उससे उत्पन्न क्रोध ही महाशना (जिसकी भूख बड़ी हो) और महापापी है, इसे ही तुम यहाँ (इस जगत् में) शत्रु जानो। ||३-३७||

 

भावार्थ:

मेरी मनचाही हो-यही ‘काम-कामना’ है। उत्पति-विनाशशील जड़-प्रदार्थों के संग्रहकी इच्छा, संयोगजन्य सुखकी इच्छा, सुखकी आसक्ति – ये सब कामना के ही रूप हैं।

भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि कामना सम्पूर्ण पापों, सन्तापों, दुःखों आदिकी जड़ है। राग से कामना उत्पन्न होती है और कामना पूर्ति होने से, भोग लेने से संसारिक पर्दार्थों में राग का महत्व दृढ़ हो जाता। राग से पुनः कामना की उत्तपति और इस प्रकार राग-कामना-भोग का क्रम चलता ही जाता है। कामना पूर्ति के लिये मनुष्य जो क्रिया करता है वह “कर्म’ कहलाती है और राग-कामना-भोग का जो क्रम चलना है वह ही है कर्म बन्धन!

कामना तत्कालिक सुखकी भी होती है और भावी सुखकी भी। भोग और संग्रहकी इच्छा तात्कालिक सुखकी कामना है और कर्म फल प्राप्ति की इच्छा भावी सुख की कामना है।

कामना की पूर्ति होनेपर ‘लोभ’ उत्पन्न होता है। कामना में बाधा पहुँचने पर (बाधा पहुँचाने वाले पर) ‘क्रोध’ उत्पन्न होता है। यदि बाधा पहुँचाने वाला अपने से अधिक बलवान हो तो क्रोध उत्पन्न न होकर ‘भय’ उत्पन्न होता है। कामना से उत्पन्न क्रोध और भय, बहुत खानेवाला और महापापी है क्युकी दोनों में ही मनुष्य बुद्धि हिन हो जाता है, विवेक लुप्त हो जाता है, धर्म-अधर्म का ज्ञान नहीं रहता! और यही मनुष्य के पतन का कारण है। इसलिये भगवन कहते है कि इस कामना को तू (अर्जुन) अपना वैरी जान।

अतः मनुष्य को कामना का त्याग करना चाहिय। परन्तु मनुष्य का प्राय यह विचार है की कामनाओं का त्याग करना बड़ा कठिन है और मनुष्य में निरन्तर कामनाओं की उत्पत्ति होती रहती है, किसको त्यागे और कैसे? –

(१) शरीर-निर्वाह मात्र की आवश्यक कामना को पूरा कर दे – जैसे

(१) शरीर सम्बन्धी कामना जो वर्तमान में उत्पन्न हुई हो – भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी आदि। इसमें इन्द्रियों के विषयों में राग-द्वेष से उत्पन्न कामना को मिटा दे। जैसे स्वदिष्ट भोजन इस पयजल

(२) जिसकी पूर्ति की साघन-सामग्री वर्तमान में उपलब्ध हो।

(३) जिसकी पूर्ति किये बिना जीवित रहना सम्भव न हो।

(४) जिसकी पूर्ति से अपना तथा दूसरों का, किसीका भी अहित न होता हो।

(२) जो कामना समाज हित में और न्याययुक्त हो, और जिसको पूरी करनेकी सामर्थ्य हमारे में हो उसको अवश्य पूरा करे, परन्तु जिसको पूरा करना हमारी सामर्थ्य से बाहर हो, उसको भगवान के अर्पण करके मिटा दे।

अन्य सभी कामनाओं को विचारसे मिटा दे।

इस प्रकार शरीर-निर्वाह मात्र की आवश्यक कामनाओं की पूर्ति कर लेनी चाहिये परन्तु उनका सुख नहीं लेना है। क्योकि पूर्ति का सुख लेनेसे नयी-नयी कामनाएँ उत्पन्न होती रहेंगी, जिसका कभी अन्त नहीं आयेगा।

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