श्रीमद भगवद गीता : ३८

कामना के कारण ज्ञान (विवेक) पर आवरण पड़ता है।

 

धूमेनाव्रियते वह्निर्यथाऽऽदर्शो मलेन च।

यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् ।।३-३८।।

 

जैसे धुयें से अग्नि और धूलि से दर्पण ढक जाता है तथा जैसे भ्रूण गर्भाशय से ढका रहता है, वैसे ही कामना के कारण ज्ञान (विवेक) आवृत होता है। ||३-३८||

 

भावार्थ:

पूर्व श्लोक ((अध्याय ३ श्लोक ३७) में कामना को महापापी और मनुष्य जगत का महान शत्रु है बताया है। अब इस श्लोक में उत्पन्न कामना को सत्ता देना का प्रभाव विवेक पर किस स्तर तक होता जाता है, इसके लिये तीन दृष्टान्त दिये गये हैं।

जो साधक योग आरूढ़ है, जिसका विवेक जागृत है, जिसको कर्तव्य-अकर्तव्य का ठीक-ठीक ज्ञान होता है। ऐसे साधक के अन्तःकरण में उत्पन्न कामना को जब सत्ता प्राप्त होती है- अर्थात उस कामना का सतर्कता पूर्वक त्याग नहीं होता, तब कामना, विवेक पर इस प्रकार आवरण डाल देती है, जैसे धुआँ अग्नि को ढ़क लेती है।

इस अवस्था में साधक का विवेक जागृत तो होता है, कर्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान तो होता है, परन्तु कामना वश कर्तव्य से विमुख हो जाता है। कर्तव्य से विमुख होने पर साधक योग साधना में जिस स्तर पर स्थिर होता है, उसे नीचे गिर जाता है। आवरण की प्रथम अवस्था में अगर साधक पुनः सतर्क हो जाये, योग के लिये पुनः प्रयत्न करे तो वह यथा स्थिति को प्राप्त हो जाता है।

कामना के प्रभाव के प्रथम स्तर पर, जिस वस्तु-परिस्थिति की कामना होती है उसको साधक यह विचार कर के मिटा दे की योग सिद्धि ही मेरा एक मात्र निश्चित उदेश्य है, और स्वयं के लिये इसका उपभोग करना मनुष्य धर्म नहीं है। ऐसा विचार करनेसे कामना नहीं रहती।

कामना को सत्ता देने से, उसकी पूर्ति के लिये कार्य-रत होने से, और कामना पूर्ण होने पर उसका उपभोग करने से प्राप्त वस्तु-परिस्थिति में राग दृढ़ होता है और इस प्रकार कामनाओं का चक्र आरम्भ हो जाता है। और आरम्भ होता है कामना के प्रभाव का दूसरा स्तर।

इस स्तर में विवेक और अन्तःकरण पर कामनाओं का आवरण इस प्रकार का होता जैसे मैल दर्पण पर अपना आवरण डाल देती है। इस अवस्था में – अन्तःकरण में नाशवान् वस्तुओं का महत्त्व अधिक हो जाता है और मनुष्य उन्हीं वस्तुओं के भोग और संग्रह की कामना करने लगता है।

इस आवरण अवस्था में मनुष्य को कर्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान तो रहता है, परन्तु कामना वश कर्तव्यों का त्याग अधिकता से होने लगता है और साधक भोग को ही सुख मानने लगता है।

जिस प्रकार जेर से ढके गर्भका यह पता नहीं लगता कि लड़का है या लड़की, ऐसे ही कामना प्रभाव के तीसरे स्तर पर- कर्तव्य-अकर्तव्यका पता नहीं लगता अर्थात् विवेक पूरी तरह ढक जाता है। विवेक ढक जाने से कामना का वेग बढ़ जाता है।

‘मैं साधक हूँ; मेरा यह कर्तव्य और यह अकर्तव्य है’ – इसका ज्ञान नहीं रहता। अन्तःकरणमें नाशवान् वस्तुओंका महत्त्व ज्यादा हो जानेसे मनुष्य उन्हीं वस्तुओंके भोग और संग्रहकी कामना करने लगता है। यह कामना ज्यों-ज्यों बढ़ती है त्यों-त्यों मनुष्य का पतन होता जाता है।

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