श्रीमद भगवद गीता : ३९

ज्ञान पर कामना का आवृत, अतृप्त अग्नि के समान है

 

आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।

कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ।।३-३९।।

 

हे कौन्तेय! ज्ञानी के नित्य शत्रु कामना से, ज्ञान आवृत होने पर, कामना अग्नि के समान होती है जिसको तृप्त करना कठिन है। ||३-३९||

 

भावार्थ:

पूर्व श्लोक में वर्णित तीसरे स्तर पर, मनुष्य का ज्ञान जब पूर्ण रूप से ढक जाता है, विवेक नहीं रहता, तब मनुष्य की कामना अग्नि रूप ले लेती है। जैसे अग्नि में घी की आहुति देते रहनेसे अग्नि कभी तृप्त नहीं होती, प्रत्युत बढ़ती ही जाती है, उसी प्रकार कामना के अनुकूल भोग भोगते रहनेसे कामना कभी तृप्त नहीं होती, प्रत्युत अधिकाधिक बढ़ती ही रहती है।

विवेकशील योगी (कर्तव्य-कर्म में अग्रसर) इस कामना को अपना वैरी मानता है क्योकि वह जानता है की यह कामना उसको भोग (सुख-दुःख) में लगा देगी। अतः विवेकशील योगी कामना उत्पन्न होते ही विचार से उसका नाश करता है।

श्लोक के सन्दर्भ मे:

विवेक हर प्राणी मात्र में है। पशु-पक्षी आदि योनियों में यह केवल जीवन-निर्वाह तक ही सिमित होता है। मनुष्य में विवेक पूर्ण रूप से विकसित होता है। सत्य-असत्य, अच्छे-बुरे, सद्गुण-दुर्गुण, कर्तव्य-अकर्तव्य, जड़-चेतन तत्व का ज्ञान विवेक से ही होता है। परन्तु कामना में रत मनुष्य का विवेक विकसित होने पर भी क्षीण हो जाता है (ढक जाता है) और पशु और मनुष्य में कोई अंतर् नहीं रहता।

कामना के भेद –

अप्राप्त को प्राप्त करने की चाह ‘कामना’ है।

वस्तुओं की आवश्यकता प्रतीत होना ‘स्पृहा’ है।

वस्तुमें उत्तमता और प्रियता दिखना ‘आसक्ति’ है।

वस्तु के मिलने की सम्भावना रखना ‘आशा’ है।

और अधिक वस्तु मिल जाय ‘लोभ’ और फिर तृष्णा’ है।

वस्तुकी इच्छा अधिक बढ़ने पर ‘याचना’ होती है।

अन्तः करण में जो अनेक सूक्ष्म कामनाएँ दबी रहती हैं, उसको ‘वासना’ कहते हैं।

यह सभी कामना के रूप है जो तंजनीय है।

जब मनुष्य किसी वस्तु की कामना करता है, तब वह उस वस्तु के पराधीन हो जाता है। जैसे मनमें घड़ी की कामना पैदा होने पर मनुष्य को घड़ी के आभाव का दुःख होने लगता है, तो यह घड़ी की पराधीनता है। घड़ी खरीदने के लिये धन न होने पर धन के आभाव का दुःख होने लगता है और यह धन की पराधीनता है। धन-घड़ी प्राप्त होने पर जो सुख की अनुभूति प्रतीत होती है, वास्तव में वह सुख नहीं, अपितु दुःख की निवृति है। दुःख की निवृति ही सुख की अनुभूति है। सुख की स्वतंत्र सत्ता नहीं है।

घड़ी प्राप्त होने पर उसके खोने, खराब होने या टूटने का भय और उससे दुःख की सम्भावना उत्त्पन्न होती है। घड़ी न होने पर पूर्व में जो दुःख था, उसका याद करके अथवा भय सत्य में परिवर्तित न होने पर भोग रूपी सुख होता है। भोग रूपी सुख (भोग रस) लेने से अन्य वस्तुओं में राग उत्त्पन्न होता है और इस प्रकार कामनाएँ बढ़ती है। और इस प्रकार मनुष्य वस्तुओं के प्रति पराधीन होता जाता है, जो की दुःखों का कारण है।

अगर घड़ी खरीदने के लिये धन है और घड़ी की आवश्यकता का कारण समय देखना है तो वह निर्वाह के लिये है और उसको पूरा कर देना चाहिये। परन्तु अगर जिन लोगो के पास जिस प्रकार की घड़ी है, उसी प्रकार की अथवा उससे अच्छी खरीदने की इच्छा होने पर वह कामना रूप है और उस कामना का विचार पूर्वक त्याग कर देना चाहिये। घड़ी प्राप्त होने पर उससे ममता न करना, उससे वियोग होने का भय न करना, स्वयं के पास होना और अन्य के पास न होने पर अहंता न करना, भोग का त्याग है।

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