श्रीमद भगवद गीता : ०४

कर्म करने से ही समाज कल्याण और योग सिद्धि है

 

न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।

न च संन्यसनादेव सिद्धिं समाधिगच्छति।।३-४।।

 

 

मनुष्य न तो कर्मोंका आरम्भ किये बिना नैर्ष्कम्य को प्राप्त है और न कर्मों के त्याग से समाज कल्याण के कार्य सिद्ध होते है और न ही योग साधना के परम् फल (शान्ति) को ही प्राप्त होता है। ||३-४||

 

भावार्थ:

इस श्लोक में कर्म (कार्य) करने की अनिवार्यता दो कारणों से कही गई है।

समाज कल्याण

समाज कल्याण के लिये कार्य करना मनुष्य जीवन का उदेश्य है, मनुष्य धर्म है। अगर मनुष्य कर्म (कार्य) ही नहीं करेगा, तो मनुष्य धर्म का पालन किस प्रकार होगा और मनुष्य जीवन का उदेश्य किस प्रकार पूर्ण होगा।

परम् शान्ति की प्राप्ति

मनुष्य जीवन का दूसरा उदेश्य है, परम् शान्ति को प्राप्त होना। अध्याय २ श्लोक ७२ में कहा गया है कि परम् शान्ति को प्राप्त होना ही ब्रह्मा की प्राप्ति है, परमात्मा की प्राप्ति है।

अध्याय २ श्लोक ७१ में कहा गया है कि, परम् शान्ति उसी योगी को प्राप्त होती है जो, कामना रहित, स्पृहारहित, ममतारहित और अहंकाररहित है और जिसने भोगों का त्याग कर दिया है।

कामना, स्पृहा, ममता, और अहंकार, यह सब अन्तःकरण में स्थित विषमता, विकार है, जो अन्तःकरण में उत्त्पन्न होती है, जब मनुष्य संसार में रह कर संसार के कार्य करता है। मनुष्य अगर संसार का त्याग करेगा, संसार के कार्य ही नहीं करेगा तो, अन्तःकरण की विषमता, विकार जो संसार और संसार के कार्य को लेकर है, वे नष्ट हो गये है यह कैसे सिद्ध होगा।

श्लोक का परिपेक्ष्य:

कार्य करने में जो स्वयं की अहंता है (मैं करता हूँ) उसका त्याग तभी है जब कार्य किया जायगा।

संसार और सांसारिक पदार्थों और प्राणी के सम्पर्क में आने पर और उनके साथ व्यवहार करने पर ममता होती है। ममता का त्याग तभी सिद्ध है जब व्यवहार किया जाय और पदार्थ, प्राणी के प्रति ममता उत्त्पन्न न हो।

सांसारिक पदार्थों के प्राप्त होने पर उत्त्पन्न स्पृहा का त्याग तभी सिद्ध है जब पदार्थों को प्राप्त किया जाय और अन्तःकरण में स्पृहा न हो।

कार्य के करने में अथवा न करने में कामना का न होना – यह तभी सिद्ध है जब कार्य हो।

प्रकृति और प्रकृति के कार्यों से अन्तःकरण में उत्तपन्न होने वाली जो विषमता, विकृति, लिप्ता है उनका त्याग ‘नैर्ष्कम्य’ पद का अर्थ है। ‘नैर्ष्कम्य’ पद का अर्थ निष्काम कर्म की लिये भी लिया जा सकता है। अतः निष्काम भाव से कार्य करने में कार्य का होना तो निश्चित है।

इस श्लोक से सिद्ध होता है कि भगवान श्रीकृष्ण कर्मों को स्वरूप से त्याग करने की आज्ञा नहीं देते, अपितु कर्म करने की आज्ञा देते है। परन्तु कर्मों में जो कामना, राग-दुवेष, ममता, आसक्ति, और अहंता है, उसका त्याग करो, ऐसा कहते हैं।

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