श्रीमद भगवद गीता : ४३

शरीर के कार्यों का कारण चेतन तत्व है बुद्धि नहीं।

 

एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।

जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् ।।३-४३।।

 

इस प्रकार बुद्धि से परे (शुद्ध) चेतन तत्व को जानकर बुद्धि के द्वार मन को वश में करके, हे महाबाहो! तुम इस दुर्जेय (दुरासदम्) कामना रूप शत्रु को मारो। ||३-४३||

 

भावार्थ:

 

इस प्रकार तुम बुद्धि के प्रकाशक चेतन तत्व (आत्मा) को जान कर, शरीर से माने हुए सम्बन्ध का विचार पूर्वक त्याग करो, अहंता का त्याग करो। तभी तुम कामना रूप शत्रु का वध कर सकते हो।

मनुष्य संसारिक विषयों का भोग तभी करता है, जब उसमें शरीर के प्रति ममता होती है। विषयों का भोग करने से कामना उत्त्पन्न होती है। अतः मनुष्य के सभी कार्य जब समाज कल्याण के लिये होंगे, और कार्यों में अहंता का त्याग होगा तब मनुष्य की भोग वृति समाप्त होती जायगी। अहंता (मैं शरीर हूँ) का त्याग तत्व ज्ञान प्राप्त करने से होता है और कार्य को करते समय यह विचार रखने से होता है कि सभी कार्य परमात्मा कृपा से हो रहे है। उसमें स्वयं का कोई योगदान नहीं है।

अहंता को लेकर तत्व ज्ञान क्या है इस का वर्णन अध्याय ३ श्लोक ३७ में विस्तार से हुआ है।

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