श्रीमद भगवद गीता : ०५

मनुष्य अपनी प्रकृति  एवं त्रिगुण, के वश कर्म करता ही है।

 

न हि कश्िचत्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।

कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।।३-५।।

 

कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्थामें एवम क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता; क्योंकि प्रकृति से उत्पन्न गुणों के द्वारा परवश हुए सब प्राणियों से, प्रकृतिजन्य गुण कर्म करवा ही लेते हैं। ||३-५||

 

भावार्थ:

मनुष्य द्वारा होने वाले कार्य का कारण है मनुष्य की स्वयं की प्रकृति। यह प्रकृति व्यक्त होती है तीन गुणों (त्रिगुण) से, जिनका नाम है – सत्त्व, रज और तम।

यहां ‘कर्म’ शब्द का प्रयोग क्रिया के लिये हुआ है ।

‘कश्चित्’ – कोई भी – अर्थात योग प्राप्ति के लिये कर्म, ज्ञान और भक्ति मार्ग का अनुसरण करने वाले साधक कर्म किये बिना नहीं रह सकते।

‘क्षणम्’ – किसी भी क्षण – शरीर में और शरीर से होने वाली क्रिया, चाहे मनुष्य उन क्रियाओं से अपना सम्बन्ध माने या न माने।

मनुष्योंकी ऐसी धरना बनी हुई है, जिसके अनुसार वे बच्चों का पालन-पोषण तथा आजीविका-व्यापर, नौकरी, अध्यापन आदि क्रियाओं को तो ‘मेरे द्वारा होने वाली क्रिया’ (कर्म) मानता हैं पर इनके अतिरिक्त खाना-पीना, सोना, बैठना, चलना, देखना, बोलना, सुनना, चिंतन करना, आदि क्रियाओं को ‘मेरे द्वारा होने वाली क्रिया’ (कर्म) नहीं मानता। मस्तिक में उत्तपन्न हो रहे विचार भी मस्तिक की क्रिया है, कर्म है।

‘जातु’ – किसी भी अवस्था में – कार्य करने की प्रवृति हो या निवृति। प्राप्त परिस्थिति में कार्य को न करना भी कर्म (कार्य) है। एकान्त में बेठना भी कर्म (कार्य) है।

पूर्व श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ने वर्णन किया है की योग के लिये क्रिया का होना अनिवार्य है। इस श्लोक में कहते है कि कोई भी मनुष्य, हर क्षण, हर अवस्था में क्रिया करता ही है – होती ही है।

मनुष्य किसी भी परिस्थिति को प्राप्त होने पर स्वयं की प्रकृति के प्रभाव में, मनुष्य निश्चित रूप से कर्म करता ही है। पुनः ध्यान देने वाली बात है कि कश्चित्, क्षणम् और जातु पद से जो कुछ भी क्रिया-कार्य परिभाषित हुए है, वह सब ‘कर्म’ पद में आ जाते है।

क्योकि सृष्टि परिवर्तन शील है, उसके कारण परिस्थिति में निरन्तर परिवर्तन आता रहता और मनुष्य उस परिस्थिति और अपने प्रकृति के प्रभाव के अनुसार कर्म करता ही है।

श्लोक के सन्दर्भ मे:

जब मनुष्य क्रिया-कार्य से सम्बन्ध मान लेता है, तब वह क्रिया-कार्य अन्तःकरण में विषमता, विकार उत्त्पन्न करती है और वह मनुष्य को सुख-दुःख में बांधने वाली होती है। क्रिया-कार्य, पदार्थ, प्राणी, शरीर से सम्बन्ध का त्याग ही योग साधना है।

अब यह मनुष्य के विवेक पर है की वह कर्म अपने माने हुए शरीर और प्रकृति से सम्बन्ध मान कर अपने लिए करे या वह प्रकृति से प्राप्त शरीर को प्रकृति के लिये, प्रकृति की सेवा में ही लगादे।

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