भावार्थ:
अध्याय ३ श्लोक ४ एवं अध्याय ३ श्लोक ५ में कर्म करने की अनिवार्यता का वर्णन करने के बाद, कार्य को किस प्रकार करना है, इसका वर्णन इस श्लोक में हुआ है।
इस श्लोक में ‘इन्द्रियाणि’ पद, ज्ञानेन्द्रियाँ एवं कर्मेन्द्रियाँ, दोना का वाचक है।
जो मनुष्य अन्तःकरण में प्राप्त पदार्थ, परिस्थिति में राग-द्वेष; अनुकूलता-प्रतिकूलता के भाव में समता ला कर प्राप्त कर्तव्यों को इन्द्रियों के द्वारा करता है वह श्रेष्ठ है। श्रेष्ठ मनुष्य सभी कर्तव्यों को आसक्ति रहित होकर करता है। अर्थात वह कार्यों से अपना कोई सम्बन्ध नहीं मानता। वह मानता है की सभी कार्य भगवत कृपा से हो रहे है।
अन्तःकरण के भावों को नियमित करके कर्तव्य कर्मों को करना ही कर्मयोग है। कर्मयोग किस प्रकार होता है उसका वर्णन अध्याय ३ श्लोक ८ में किया है।
श्लोक के सन्दर्भ मे:
हट पूर्वक न तो इन्द्रियों के विषय का त्याग करना है और न ही इन्द्रियों (ज्ञानेन्द्रियाँ एवं कर्मेन्द्रियाँ) को कार्य से सयंमित (निग्रह) करना है। अपितु इन्द्रियों के विषय को लेकर अन्तःकरण में उत्त्पन्न अनुकूलता-प्रतिकूलता का भाव और कार्यों से सम्बन्ध का त्याग करना है। इन्द्रियों के कार्य को अन्तःकरण (बुद्धि) के द्वारा नियंत्रित करना है।
कार्य और कार्य फल में आसक्ति करने से सुख-दुःख रूपी बन्धन होते है। यह सुख-दुःख कार्य और कार्य फल में नहीं है अपितु इनमें आसक्ति करने से है। अतः साधकको क्रियाओं का त्याग न करके उनमें आसक्ति का त्याग करना चाहिये।
साधारण मनुष्य अपनी कामना सिद्धिके लिये कार्यमें प्रवृत होता है; परन्तु साधक आसक्ति के त्याग का उद्देश्य लेकर शास्त्रविहित कर्तव्य-कर्म करने में प्रवृत होता है।
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