भावार्थ:
कर्मयोग किस प्रकार हो, इसके लिए भगवान श्रीकृष्ण नियत कर्म करने के लिये कहते है।
नियत कर्म का तातपर्य है – वर्ण, आश्रम एवं परिस्थिति के अनुसार प्राप्त कर्तव्य-कर्म जो समाज कल्याण के लिये हो। इसके अतिरिक्त समाज कल्याण के लिये, स्वधर्म का पालन करना भी नियत कर्म है। शरीर-निर्वाह के लिए नित्य कर्म भी नियत कर्म है।
इस प्रकार शास्त्र विधिसे नियत कर्म आसक्ति रहित हो कर करने से मनुष्य के अन्तःकरण समता आती है। अतः योग (समता) के लिये किये जाने वाले नियत कर्म को कर्मयोग कहा गया है।
क्योकि नियत कर्म करने से समता (परमात्मा) की प्राप्ति होती है, इसलिये कर्म न करने से नियत कर्म करना श्रेष्ठ है।
भगवान आगे कहते है कि कार्यों को करे बिना तो शरीर-निर्वाह भी नहीं होता।
अतः मनुष्य के सभी कार्य समाज कल्याण के लिये होने चाहिये और स्वयं के लिये केवल शरीर-निर्वाह मात्र के लिये होने चाहिये।
श्लोक के सन्दर्भ मे:
समाज कल्याण के लिये नियत कर्म करने से मनुष्य में कामना का त्याग होता है, और कार्य, पदार्थ के प्रति राग- द्वेष का त्याग होता है। कार्य में आसक्ति (सम्बन्ध) का त्याग करने से अहंता (मैं करता हूँ) का त्याग होता है।
कामना, ममता, अहंता, राग- द्वेष के त्याग से ही समता की प्राप्ति होती है।
नियत कर्म अगर शरीर को कष्ट देने वाले हो अथवा मन में व्यथा उत्त्पन्न करने वाले हो, तो भी उन कार्यों को निश्चित रूप से करना चाहिये। अन्यथा वह कर्मों का त्याग होगा। अध्याय २ श्लोक ४७ में भगवान ने स्पष्ट कहा है कि हे अर्जुन! तेरी कर्म न करने में आसक्ति न हो।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]
Read MoreTo give feedback write to info@standupbharat.in
Copyright © standupbharat 2024 | Copyright © Bhagavad Geeta – Jan Kalyan Stotr 2024