श्रीमद भगवद गीता : ०९

यज्ञ (कर्तव्य-पालन) से अन्यत्र कर्म करना बन्धन है

 

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर।।३-९।।

 

यज्ञ (कर्तव्य-पालन) के लिये किये जानेवाले कर्मोंसे अन्यत्र (अपने लिये किये जाने-वाले) कर्मोंमें (लगा हुआ) मनुष्य-समुदाय कर्मोंसे बँधता है (इसलिए) हे कुन्तीनन्दन! तू आसक्तिरहित होकर उस यज्ञ के लिये (ही) कर्तव्यकर्म कर। ||३-९||

 

भावार्थ:

अध्याय ३ श्लोक ७ एवं अध्याय ३ श्लोक ८ में योग सिद्धि के लिये नियत कर्म करने को कहा। अब इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ‘यज्ञ’ के लिये कर्म करने को कहते है और कहते है कि यज्ञ से अन्यत्र कर्म में लगा हुआ मनुष्य कर्मों से बँधता है।

जितने भी सकाम और निषिद्ध कर्म हैं वे सब-के-सब ‘अन्यत्र-कर्म’ की श्रेणी में ही हैं। अपने सुख, मान, बड़ाई, आराम आदिके लिये जितने कर्म किये जायँ वे सब के सब भी अन्यत्रकर्म हैं।

जब मनुष्य यज्ञ के लिये कर्म न करके केवल अपने सुख के लिये कर्म करता है, तब वह बँध जाता है।आसक्ति और स्वार्थभावसे कर्म करना ही बन्धनका कारण है। कर्मोंमें, पदार्थों में तथा जिनसे कर्म किये जाते हैं, उस शरीर, मन, बुद्धि आदि सामग्री में ममता-आसक्ति होने से ही बन्धन होता है। ममता, आसक्ति रहने से कर्तव्य-कर्म भी स्वाभाविक एवं भली भाँति नहीं होते।

आलस्य और प्रमादके कारण नियत कर्मका त्याग करना ‘तामस त्याग’ कहलाता है, जिसका फल मूढ़ता है। कर्मोंको दुःखरूप समझकर उनका त्याग करना ‘राजस त्याग’ कहलाता है, जिसका फल दुःखोंकी प्राप्ति है। इसलिये यहाँ भगवान् अर्जुन को कर्मों का त्याग करने के लिये नहीं कहते, प्रत्युत स्वार्थ, ममता, फलासक्ति, कामना, वासना, पक्षपात आदिसे रहित होकर शास्त्रविधिके अनुसार, सुचारुरूपसे, उत्साहपूर्वक कर्तव्य-कर्मों को करने की आज्ञा देते हैं।

श्लोक के सन्दर्भ मे:

सृष्टि चक्र में मनुष्य जीवन की उत्त्पति का कारण क्या है, उसके जीवन का उद्देश्य क्या है, सृष्टि चक्र में उसका योगदान किस प्रकार हो,  और मनुष्य का दायत्व क्या है – इन सब प्रश्नों उत्तर देने के लिये यज्ञ का प्रकरण अगले श्लोक से प्रारम्भ होता है।

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