श्रीमद भगवद गीता : ०२

मनुष्य कल्याण के लिये कौनसा मार्ग श्रेष्ठ है?

 

व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे।

तदेकं वद निश्िचत्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्।।३-२।।

 

 

आप इस मिश्रित वाक्य से मेरी बुद्धि को मोहितसा करते हैं। अत: आप उस एक (श्रेष्ठ मार्ग) को निश्चित रूप से कहिये जिससे मैं कल्याण को प्राप्त हो जाऊँ। ||३-२||

भावार्थ:

अध्याय २ श्लोक ३१ से अध्याय २ श्लोक ३७ तक भगवान श्री कृष्ण, अर्जुन को अपने स्वधर्म का पालन, अर्थात युद्ध करने को कहते है। अध्याय २ श्लोक ३९ में ‘इस बुद्धि से युक्त हुआ तू कर्मबन्धन को छोड़ देगा’ पद से अर्जुन यह अर्थ लेते है की ज्ञान प्राप्त होने से कर्म नहीं करने होंगे। अध्याय २ श्लोक ४९ में ‘बुद्धियोग की अपेक्षा सकामकर्म निकृष्ट है’ पद से अर्जुन यह मानते है कि कर्म से ज्ञान अति श्रेष्ठ है।

यह सब विचार अर्जुन को विपरीत भान पड़ते है और भृमित करने वाले लगते है ।

क्योकि अर्जुन अपना कल्याण करना चाहते है, अतः वह भृम का निवारण और एक निश्चित मार्ग को जानना चाहते है जो कल्याण करने वाला हो।

श्लोक के सन्दर्भ मे:

पूर्व अध्याय के प्रकरण पर विचार करने पर ज्ञात होता है कि, मनुष्य जीवन में प्राप्ति अथवा त्याग की प्रक्रिया अन्तःकरण (बुद्धि) को लेकर है। अन्तःकरण में समता की प्राप्ति, और कामना, ममता, अहंकार का त्याग करने से मनुष्य और संसार का कल्याण होता है और इसको ही ‘योग’ कहते है। परन्तु इस योग की सिद्धि, संसार का त्याग करने से नहीं है। अपितु योग की सिद्धि, संसार में रहे कर, और संसार के कार्य करते हुए कामना, ममता, अहंकार का त्याग करने से प्राप्त होती है।

इस तथ्य को ही भगवान श्रीकृष्ण इस अध्याय में व्यक्त करते है।

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