भावार्थ:
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण स्वीकार करते है कि, योग में स्थित होने के लिये दो प्रकार की निष्ठा समाज में प्रचलित है।
जिन लोगो की निष्ठा तत्व ज्ञान प्राप्ति में होती है, वह ज्ञान प्राप्ति के द्वारा विवेक को जाग्रत करके योग में स्थित होने के लिये साधना करते है।
जिन लोगों की निष्ठा कार्य करने में होती है, वह कर्मों के द्वारा योग में स्थित होने के लिये साधना करते है।
इस प्रकार विद्वान् लोग योग में स्थित होने के लिये इन दोनों निष्ठाओं को, दो अलग-अलग मार्ग मानते है।
परन्तु भगवान श्रीकृष्ण इन दोनों निष्ठाओं को योग में स्थित होने के लिये अलग-अलग मार्ग मानने का खंडन आगे के श्लोकों में करते है।
अपना कल्याण किस प्रकार हो और उस कल्याण की प्राप्ति के लिये निश्चित बुद्धि कर, साधना करने से साधक पाप से रहित हो जाता है। ऐसा भगवान श्रीकृष्ण ने अध्याय २ श्लोक ५० में कहा है।
अर्जुन अध्याय ३ श्लोक २ में अपने कल्याण के लिये एक निश्चित मार्ग बताने की प्राथना करते है। क्योकि निश्चित मार्ग बताने की प्राथना से अर्जुन में स्वयं के कल्याण के लिये निश्चित बुद्धि का प्रदर्शन होता है, इसलिये इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को प्रोत्सान करने के लिये “निष्पाप अर्जुन” से सम्भोधित करते है।
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