भावार्थ:
‘अहिंसा’- शरीर, मन, वाणी, भाव आदिके द्वारा किसीका भी किसी प्रकारसे अनिष्ट न करनेको तथा अनिष्ट न चाहनेको ‘अहिंसा’ कहते हैं। जो संसारके सीमित पदार्थोंको व्यक्तिगत (अपने) न होनेपर भी व्यक्तिगत मानकर सुखबुद्धिसे भोगता है, वह हिंसा ही करता है। कारण कि समष्टि संसार से सेवा के लिये मिले हुए पदार्थ, वस्तु, व्यक्ति, आदि में से किसी को भी अपने भोगके लिये व्यक्तिगत मानना हिंसा ही है।
जो सुख और भोग बुद्धिसे भोगोंका सेवन करता है, उसको देखकर, जिनको वे भोगपदार्थ नहीं मिलते, ऐसे अभावग्रस्तोंको दुःखसंताप होता है। यह उनकी हिंसा ही है।
अतः देव सम्पदा युक्त साधक, शरीर, मन, वाणी, भाव आदिके द्वारा हिंसा नहीं करता एवं संसार से केवल उतना ही ग्रहण करता है जितना जीवन निर्वाहा के लिये पर्याप्त होता है।
‘सत्यम्’: अपने स्वार्थ और अभिमानका त्याग करके केवल दूसरों के हित की दृष्टिसे जैसा सुना, देखा, पढ़ा, समझा और निश्चय किया है, उससे न अधिक और न कम, वैसा का वैसा प्रिय शब्दों में कह देना, सत्य है।
अक्रोधः जिस मनुष्य में कामना, लोभ, अहंकार नहीं होता, वह क्रोध नहीं करता।
दूसरों का अनिष्ट करनेके लिये अन्तःकरणमें जो जलनात्मक वृत्ति पैदा होती है, वह क्रोध है। पर जब तक अन्तःकरणमें दूसरोंका अनिष्ट करनेकी भावना पैदा नहीं होती, तबतक वह क्षोभ है, क्रोध नहीं।
‘त्यागः’ राग-द्वेष, कामना, अहंकार का त्याग ही मुख्य त्याग है। इनका त्याग होने पर जो अन्य सांसारिक त्याग (क्रोध, पाप दुराचार) का तो आस्तित्व ही नहीं है।
शान्तिः अन्तःकरण में राग-द्वेष से उत्पन्न, विकार, विषमता न होने से अन्तःकरण स्वाभाविक ही शान्त, प्रसन्न रहता है।
निन्दा: द्वेष भाव रहने से मनुष्य निन्दा करता है। अतः द्वेष न रहने से निन्दा का कारण नहीं रहता।
दया : अन्य प्राणी जब किसी विषम परिस्थिति होता है तब उसके सहायता करना दया है। प्राणीओं के प्रति सम भाव होने से, एवं स्वयं को अन्यों में देखने से, दया का भाव स्वतः उत्पन्न होता है।
स्वयं श्रेष्ठ और अन्य को निम्न मानने से भी दया का भाव उत्पन्न होता है, परन्तु वह अहंता होने के कारण विकार है।
अलोलुप्ता: इन्द्रियों के विषयों में प्रियता का न होना और प्राप्त वस्तु में भोग वृति न होने से, अन्य उसको प्राप्त न करे ऐसा भाव न रहने से लोलुप्ता नहीं रहती। परमात्मा से प्राप्त वस्तु संसार के लिये ही है, ऐसा भाव रहने से लालच नहीं रहता।
नम्रता: मनुष्य द्वारा अन्यों के लिये कुछ भला हो जाय और अन्य उसका उपकार मानने पर अहंता का न होना, और लज्जा का अनुभव करना ह्र्दय की नम्रता, विनयशीलता है। साधक यह जनता है कि उसके द्वारा को कुछ भी शुभ कार्य हो रहे है, उसका कारण परमात्मा है और वह केवल निमित मात्रः है।
लज्जा: अपने कर्तव्यों को न कर पाने पर और अन्यों को किसी प्रकार का कष्ट स्वयं से हो जाने पर लज्जा।
चञ्चलता: इन्द्रियों के विषयों में प्रियता और कभी एक और कभी अन्य वस्तु को प्राप्त करने की इच्छा मन की चञ्चलता है। इन्द्रियों के विषयों में आकर्षण न रहने से चञ्चलता जाती रहती है।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]
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