श्रीमद भगवद गीता : ०७

प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः।

न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते ।।१६-७।।

 

 

आसुरी प्रकृतिवाले मनुष्य प्रवृत्ति और निवृत्तिको नहीं जानते और उनमें न बाह्यशुद्धि, न श्रेष्ठ आचरण तथा न सत्य-पालन ही होता है। ।।१६-७।।

 

भावार्थ:

सर्व प्रथम आसुरी प्रकृतिवाले मनुष्य में विवेक की लुप्ता होती है। मनुष्य का कल्याण में है, यह ज्ञान नहीं होता। इसलिए स्वयं के कल्याण के लिये क्या करना है अथवा क्या नहीं, इसका विवेक नहीं होता। वह केवल भोग में लिप्त रहता है।

विवेक न होने के कारण विचारों में और स्वभाव में शुद्धता होती है, न ही आचरण सदाचार होता है और न ही वह सत्य का पालन वचनों में और कार्यों में करते है।

 

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