श्रीमद भगवद गीता : अध्याय १६

०१ - ०५ दैवी-सम्पत्ति को धारण किये हुए मनुष्य के लक्षण।

।।१६-०१।।श्री भगवान् ने कहा: भयका सर्वथा अभाव; अन्तःकरणकी शुद्धि; ज्ञानके लिये योगमें दृढ़ स्थिति; सात्त्विक दान; इन्द्रियोंका दमन; यज्ञ; स्वाध्याय; कर्तव्य-पालनके लिये कष्ट सहना; शरीर-मन-वाणीकी सरलता।
।।१६-०२।। अहिंसा, सत्यभाषण; क्रोध न करना; संसारकी कामनाका त्याग; अन्तःकरणमें राग-द्वेषजनित हलचलका न होना; निन्दा न करना; प्राणियोंपर दया करना; सांसारिक विषयोंमें न ललचाना; अन्तःकरणकी नम्रता; अकर्तव्य करनेमें लज्जा; चपलताका अभाव।
।।१६-०३।। तेज (प्रभाव), क्षमा, धैर्य, शरीरकी शुद्धि, वैरभावका न रहना और मानको न चाहना, हे भरतवंशी अर्जुन! ये सभी दैवी सम्पदाको प्राप्त हुए मनुष्यके लक्षण हैं।
।।१६-०४।। हे पृथानन्दन! दम्भ करना, घमण्ड करना, अभिमान करना, क्रोध करना, कठोरता रखना और अविवेकका होना – ये सभी आसुरी सम्पदा को प्राप्त हुए मनुष्यके लक्षण हैं।
।।१६-०५।। दैवी-सम्पत्ति मुक्तिके लिये और आसुरी-सम्पत्ति बन्धनके लिये है। हे पाण्डव तुम दैवी-सम्पत्तिको प्राप्त हुए हो, इसलिये तुम्हें शोक (चिन्ता) नहीं करना चाहिये।

०६ - १९ आसुरी-सम्पत्ति को धारण किये हुए मनुष्य के विचार और आचरण का वर्णन।

।।१६-०६।। इस लोकमें दो तरहके प्राणियोंकी सृष्टि है, – दैवी और आसुरी। दैवी सम्पदा तो मैंने विस्तारसे वर्णन कर दिया, अब हे पार्थ! तुम मेरेसे आसुरीका विस्तार सुनो।
।।१६-०७।। आसुरी प्रकृतिवाले मनुष्य प्रवृत्ति और निवृत्तिको नहीं जानते और उनमें न बाह्यशुद्धि, न श्रेष्ठ आचरण तथा न सत्य-पालन ही होता है।
।।१६-०८।। वे कहा करते हैं कि संसार असत्य, अप्रतिष्ठित और बिना ईश्वरके अपने-आप केवल स्त्री-पुरुषके संयोगसे पैदा हुआ है। इसलिये काम ही इसका कारण है, और कोई कारण नहीं है।
।।१६-०९।। उपर्युक्त (नास्तिक) दृष्टिका आश्रय लेनेवाले जो मनुष्य अपने नित्य स्वरूपको नहीं मानते, जिनकी बुद्धि तुच्छ है, जो उग्रकर्मा और संसारके शत्रु हैं, उन मनुष्योंकी सामर्थ्यका उपयोग जगत्का नाश करनेके लिये ही होता है।
।।१६-१०।। कभी पूरी न होनेवाली कामनाओंका आश्रय लेकर दम्भ, अभिमान और मदमें चूर रहनेवाले तथा अपवित्र व्रत धारण करनेवाले मनुष्य मोहके कारण दुराग्रहोंको धारण करके संसार के कार्य करते हैं।
।।१६-११।। वे मृत्युपर्यन्त रहने वाली अपार चिन्ताओं का आश्रय लेने वाले, पदार्थोंका संग्रह और उनका भोग करनेमें ही लगे रहनेवाले और ‘जो कुछ है, वह इतना ही है’ – ऐसा निश्चय करनेवाले होते हैं।
।।१६-१२।। वे आशाकी सैकड़ों फाँसियोंसे बँधे हुए मनुष्य काम-क्रोधके परायण होकर पदार्थोंका भोग करनेके लिये अन्यायपूर्वक धन-संचय करनेकी चेष्टा करते रहते हैं।
।।१६-१३।। इतनी वस्तुएँ तो हमने आज प्राप्त कर लीं और अब इस मनोरथको प्राप्त (पूरा) कर लेंगे। इतना धन तो हमारे पास है ही, इतना धन फिर हो जायगा।
।।१६-१४।। वह शत्रु तो हमारे द्वारा मारा गया और उन दूसरे शत्रुओं को भी हम मार डालेंगे। हम सर्वसमर्थ हैं। हमारे पास भोग-सामग्री बहुत है। हम सिद्ध हैं। हम बड़े बलवान् और सुखी हैं।
।।१६-१५।। हम धनवान् हैं, बहुत-से मनुष्य हमारे पास हैं, हमारे समान और कौन है? हम खूब यज्ञ करेंगे, दान देंगे और मौज करेंगे — इस तरह वे अज्ञानसे मोहित रहते हैं।

१६ - २० आसुरी-सम्पत्ति वाले मनुष्यों के दुर्भाव और दुर्गति का वर्णन।

।।१६-१६।। कामनाओं के कारण तरह-तरह से भ्रमित चित्तवाले, मोह-जालमें अच्छी तरहसे फँसे हुए तथा पदार्थों और भोगोंमें अत्यन्त आसक्त रहनेवाले मनुष्य भयङ्कर नरकोंमें गिरते हैं।
।।१६-१७।। अपने को सबसे अधिक पूज्य माननेवाले, अकड़ रखनेवाले तथा धन और मानके मदमें चूर रहनेवाले वे मनुष्य दम्भसे अविधिपूर्वक नाममात्रके यज्ञोंसे यजन करते हैं।
।।१६-१८।। वे अहंकार, हठ, घमण्ड, कामना और क्रोधका आश्रय लेनेवाले मनुष्य अपने और दूसरोंके शरीरमें रहनेवाले मुझ अन्तर्यामीके साथ द्वेष करते हैं तथा (मेरे और दूसरोंके गुणोंमें) दोष-दृष्टि रखते हैं।
।।१६-१९।। उन द्वेष करनेवाले, क्रूर स्वभाववाले और संसारमें महान् नीच, अपवित्र मनुष्योंको मैं बार-बार आसुरी योनियोंमें गिराता ही रहता हूँ अर्थात् उत्पन्न करता हूँ।
।।१६-२०।। हे कुन्तीनन्दन! वे मूढ मनुष्य मेरे को प्राप्त न करके ही जन्म-जन्मान्तरमें आसुरी योनि को प्राप्त होते हैं, फिर उससे भी अधिक अधम गतिमें अर्थात् भयङ्कर नरकोंमें चले जाते हैं।

२१ - २४ आसुरी-सम्पत्ति के मूलभूत दोष से रहित होकर शास्त्र विधि के अनुसार कर्म करने की प्रेरणा।

।।१६-२१।। काम, क्रोध और लोभ – ये तीन प्रकारके नरक के दरवाजे जीवात्मा का पतन करनेवाले हैं, इसलिये इन तीनोंका त्याग कर देना चाहिये।
।।१६-२२।। हे कुन्तीनन्दन! इन तमोद्वार से रहित हुआ जो मनुष्य अपने कल्याणका आचरण करता है, वह परमगतिको प्राप्त हो जाता है।
।।१६-२३।। जो मनुष्य शास्त्रविधिको छोड़कर अपनी इच्छासे मनमाना आचरण करता है, वह न सिद्धि – (अन्तःकरणकी शुद्धि-) को, न सुखको और न परमगतिको ही प्राप्त होता है।
।।१६-२४।। अतः तेरे लिये कर्तव्य-अकर्तव्यकी व्यवस्थामें शास्त्र ही प्रमाण है – ऐसा जानकर तू इस लोकमें शास्त्र-विधिसे नियत कर्तव्य कर्म करने चाहिए।

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