श्रीमद भगवद गीता : ०१

श्री भगवानुवाच

 अभयं सत्त्वसंशुद्धिः ज्ञानयोगव्यवस्थितिः।

दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् ।।१६-१।।

 

श्री भगवान् ने कहा: भयका सर्वथा अभाव; अन्तःकरणकी शुद्धि; ज्ञानके लिये योगमें दृढ़ स्थिति; सात्त्विक दान; इन्द्रियोंका दमन; यज्ञ; स्वाध्याय; कर्तव्य-पालनके लिये कष्ट सहना; शरीर-मन-वाणीकी सरलता। ।।१६-१।।

 

भावार्थ:

 

दैवी सम्पदाको प्राप्त हुए मनुष्य के क्या लक्षण होते हैं, इसका वर्णन अगले तीन श्लोक में हुआ है।

अभयम् : अनिष्ट की आशङ्का से उत्पन्न होने वाले भाव का नाम भय है और उस भय का सर्वथा अभाव ‘अभय’ है। मनुष्य का जब विषयों से सम्बन्ध होता, आकासक्ति होती है, तब उस सम्बन्ध से वियोग होने की आशङ्का ही अनिष्ट है और यह अनिष्ट होने का भाव ही भय है। शरीर से सम्बन्ध होने से और स्वयं की सत्ता शरीर में देखने से, मनुष्य को शरीर के न रहने का अत्यधिक भय होता है। योग स्थित साधक का किसी भी विषय से सम्बन्ध न मानना से वह अभय हो जाता है।

‘सत्त्वसंशुद्धि:’ – अन्तःकरणकी सम्यक् शुद्धिको सत्त्वसंशुद्धि कहते हैं। संसारसे रागरहित होकर भगवान्में अनुराग हो जाना ही अन्तःकरणकी सम्यक् शुद्धि है। अन्तःकरण में जब सम्पूर्ण विषमतायें समाप्त हो जाती है, तब सत्त्वसंशुद्धि कहते हैं।

‘ज्ञानयोगव्यवस्थितिः’ – परमात्मतत्त्वका जो ज्ञान (बोध) है, उसको प्राप्त करने के लिये योग साधना करना और उसको सिद्ध करके उसमे स्थित होना ज्ञानयोगव्यवस्थितिः है। श्रीमद भागवत गीता का अम्पूर्ण प्रकरण योगमें स्थित के लिये है। अतः दैवी सम्पदाको प्राप्त मनुष्य योग सिद्धि और उसमें स्थित रहने के लिये कार्यरत रहता है।

‘दमः’ – इन्द्रियों के विषयों में किसी प्रकार का राग-द्वेष न करना, उनमे स्पृहा का न होना दमः है।

‘दानम्’ : मनुष्य जब संसार में रहकर पुरुषार्थ करता है,  तब उसको प्रकृत्ति से जो प्राप्त होता है,  उसको संसार की सेवा में लगा देना ही दान हैं।

साधक ऐसा विचार रखता है कि प्राप्त वस्तु, सामर्थ्य, योग्यता आदि जो कुछ भी है, वह सब भगवान्ने दूसरोंके सेवा करनेके लिये मुझे निमित्त बनाकर दी है।

जो दान अपनी कामना पूर्ति के लिये, अथवा किसी दुःख के निवारण हेतू दिया जाता है, वह दान नहीं व्यपार है।

‘यज्ञः’ अध्याय 3 श्लोक मे विस्तार से बतया गया है की यज्ञ क्या है और किस प्रकार किया जाता है।

अपने वर्ण, आश्रम, परिस्थिति आदिके अनुसार जिसकिसी समय जो कर्तव्य प्राप्त हो जाय, उसको स्वार्थ और अभिमानका त्याग करके दूसरोंके हितकी, भावना से या भगवत्प्रीत्यर्थ करना यज्ञ है।

‘स्वाध्यायः’ : स्व को जानने और उसमें स्थित होने के लिये जो अध्ययन है, वह स्वाध्याय है। स्वयं के अन्त: करण में स्थित वृत्तियां और उत्पन्न हो रहे विकारों का अध्यन ही स्वाध्याय है।

तपः परमार्थ के लिये अपने शारीरिक एवं मानसिक कष्टों को सहना तप है। यह तप तभी तक है जब तक मनुष्य का शरीर के साथ सम्बन्ध है।

आर्जवम् – छल, कपट, बनावटीपन का न होना और संसारिक व्यवहार में सरलता का होना आर्जवम् है।

 

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