श्रीमद भगवद गीता : १३

इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम्।

इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम् ।।१६-१३।।

 

 

इतनी वस्तुएँ तो हमने आज प्राप्त कर लीं और अब इस मनोरथको प्राप्त (पूरा) कर लेंगे। इतना धन तो हमारे पास है ही, इतना धन फिर हो जायगा। ।।१६-१३।।

 

भावार्थ:

आसुरी प्रकृति वाले व्यक्ति में लोभ बना रहता है। प्रति दिन नय-नय मनोरथ बनते है और उनको पूर्ण करने के लिये नय-नय कार्य होते है। जैसे-जैसे उनका लोभ बढ़ता जाता है, वैसे ही वैसे उनके मनोरथ भी बढ़ते जाते हैं। इसके साथ उनका चिन्तन बढ़ जाता है कि इतना प्राप्त कर लिया, इतना और करना है।

 

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