श्रीमद भगवद गीता : १५

आढ्योऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया।

यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः ।।१६-१५।।

 

 

हम धनवान् हैं, बहुत-से मनुष्य हमारे पास हैं, हमारे समान और कौन है? हम खूब यज्ञ करेंगे, दान देंगे और मौज करेंगे — इस तरह वे अज्ञानसे मोहित रहते हैं। ।।१६-१५।।

 

भावार्थ:

अज्ञान और उससे उत्पन्न विपरीत ज्ञान से मोहित तथा गर्व और मद से उन्मत्त आसुरी मनुष्य संसार की ओर इसी भ्रामक दृष्टि से देखता है। उसे अपने धन, सामर्थ्य और कुल का इतना अभिमान होता है कि वह अपने समक्ष सभी को तुच्छ समझता है।

उसकी महत्त्वाकांक्षा यह होती है कि यज्ञादि के द्वारा वह देवताओं पर भी शासन करे और दान के द्वारा सम्पूर्ण जगत् का क्रय कर ले। इस प्रकार, सम्मानित और पूजित होकर मैं मौज करूँगा।

 

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