श्रीमद भगवद गीता : १८

अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः।

मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः ।।१६-१८।।

 

 

वे अहंकार, हठ, घमण्ड, कामना और क्रोधका आश्रय लेनेवाले मनुष्य अपने और दूसरोंके शरीरमें रहनेवाले मुझ अन्तर्यामीके साथ द्वेष करते हैं तथा (मेरे और दूसरोंके गुणोंमें) दोष-दृष्टि रखते हैं। ।।१६-१८।।

 

भावार्थ:

आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य अहङ्कार, बल, घमण्ड, काम और क्रोध के आश्रित रहते है और इन्हें ही श्रेष्ठ गुण मानकर इनका अवलम्बन भी करते है। आसुरी मनुष्य स्वयं को तो ईश्वर मानता है और परमात्मा को स्वयं के समान मनुष्य मानता है। और जिस प्रकार वह अन्य मनुष्यों से द्वेष करता है उसी प्रकार परमात्मा से भी द्वेष करता है। जब भी उसको अपने कार्य में सफलता नहीं मिलती तब वह उसका दोष परमात्मा पर मड देता है।

परमात्मतत्व ही संसार का कारण है, इस विचार को दोष पूर्ण और निरर्थक मानता है। उसका यह ही मानना होता है कि सभी कार्य उसके द्वारा किये जाते है और उसके समान अन्य मनुष्य करते है। इसमें परमात्मा का कोई योगदान नहीं है।

 

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