श्रीमद भगवद गीता : १९

तानहं द्विषतः क्रूरान्संसारेषु नराधमान्।

क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु ।।१६-१९।।

 

 

उन द्वेष करनेवाले, क्रूर स्वभाववाले और संसारमें महान् नीच, अपवित्र मनुष्योंको मैं बार-बार आसुरी योनियोंमें गिराता ही रहता हूँ अर्थात् उत्पन्न करता हूँ। ।।१६-१९।।

 

भावार्थ:

ऐसे आसुर मनुष्य बिना ही कारण सबसे वैर रखते हैं और सबका अनिष्ट करनेपर ही तुले रहते हैं। उनके कर्म बड़े क्रूर (दूसरों पर हिंसा) होते हैं। ऐसे वे क्रूर, निर्दयी, हिंसक मनुष्य नराधम अर्थात् मनुष्यों में महान् नीच होते हैं।

आसुरी मनुष्य में कामना अधिक होती है और कामना ही मनुष्य को आसुरी प्रकृति वाला बनती है। अतः एक बार आसुरी प्रकृति को प्राप्त मनुष्य उसी स्थिति में रहता है और वह कभी उससे बहार नहीं आ पाता।

भगवान श्री कृष्ण ने इस प्रकार के लोगों के लिये अधम आसुरी योनि का नाम दिया है। आसुरी मनुष्य एक अलग योनि ही प्रदान की है।

यह बात विचार करने की है अन्य जितनी भी योनियाँ है वह सब अपने धर्म का पालन करती है और किसी भी प्रकार से उनके कार्य नीच नहीं है। मनुष्य अगर स्वयं को श्रष्ट और अन्य योनियों को नीच योनि मानता है तो वह स्वयं की योनि के अहंकार में मानता है, जो की आसुरी प्रकृति है। आसुरी मनुष्य की नीचता, की तुलना अन्य किसी योनि से नहीं हो सकती।

 

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