श्रीमद भगवद गीता : २३

यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।

न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् ।।१६-२३।।

 

 

जो मनुष्य शास्त्रविधिको छोड़कर अपनी इच्छासे मनमाना आचरण करता है, वह न सिद्धि – (अन्तःकरणकी शुद्धि-) को, न सुखको और न परमगतिको ही प्राप्त होता है। ।।१६-२३।।

 

भावार्थ:

इस श्लोक में शास्त्र विधि है मनुष्य धर्म का पालन। मनुष्य धर्म है प्राप्त कर्तव्यों को आसक्ति रहित हो कर पूर्ण निष्ठा से करना। स्वयं के लिये केवल जीवन निर्वाह मात्र करना।

जो मनुष्य ऐसा नहीं करता, उसका जीवन व्यर्थ ही जाता है। जैसा पूर्व श्लोकों में व्यक्त किया है, धीरे-धीरे वह आसुरी प्रकृति का होकर नीच स्थिति में आ जाता है।

न तो अन्तःकरण की शुद्धिरूप जो देवी सम्पदा है, वह प्राप्त होती है। न सुख ही मिलता है और न ही परमात्मा की प्राप्ति होती है।

 

PREVIOUS                                                                                                                                          NEXT

धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष

धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]

Read More

अध्याय