भावार्थ:
इस श्लोक में शास्त्र विधि है मनुष्य धर्म का पालन। मनुष्य धर्म है प्राप्त कर्तव्यों को आसक्ति रहित हो कर पूर्ण निष्ठा से करना। स्वयं के लिये केवल जीवन निर्वाह मात्र करना।
जो मनुष्य ऐसा नहीं करता, उसका जीवन व्यर्थ ही जाता है। जैसा पूर्व श्लोकों में व्यक्त किया है, धीरे-धीरे वह आसुरी प्रकृति का होकर नीच स्थिति में आ जाता है।
न तो अन्तःकरण की शुद्धिरूप जो देवी सम्पदा है, वह प्राप्त होती है। न सुख ही मिलता है और न ही परमात्मा की प्राप्ति होती है।
अतः मनुष्य को जो शास्त्रों में कर्तव्य और अकर्तव्य व्यवस्था से कहे गये है उनको प्रमाण मान कर प्राप्त कर्तव्य ही करने चाहिये।
इस अध्याय से और अंत के इस श्लोक से पुनः स्पष्ट हो जाता है मनुष्य को केवल और केवल कर्तव्यों का पालन करना चाहिये। अन्तःकरण की शुद्धि के लिये योग साधना करनी चाहिये।
इस के लिये – ज्ञान योग के द्वारा सत्य को जाने, कर्तव्य और अकर्तव्य का विवेक जाग्रत करे।
कर्म योग के द्वारा विषमताओं का त्याग और समता को प्राप्त करे।
भक्ति योग से अहंता का त्याग करे।
ध्यान योग से केवल परमात्मा का चिंतन करे।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]
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