श्रीमद भगवद गीता : ०३

तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता।

भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत ।।१६-३।।

 

 

तेज (प्रभाव), क्षमा, धैर्य, शरीरकी शुद्धि, वैरभावका न रहना और मानको न चाहना, हे भरतवंशी अर्जुन! ये सभी दैवी सम्पदाको प्राप्त हुए मनुष्यके लक्षण हैं। ।।१६-३।।

 

भावार्थ:

‘तेजः’ जब साधक के सभी कार्य अन्यों के कल्याण के लिये होते है और उसमें देवी सम्पदा पूर्ण रूप से प्राप्त होती है, तब उन के प्रभाव से अन्य भी उनका अनुसरण करने लग जाते है।

 

‘क्षमा’: जब स्वयं में कामना, ममता, अहंता, द्वेष भाव नहीं होता, तब अगर अन्य द्वारा अहित भी होने पर क्षमा भाव रहता है। अनिष्ट करने वाले को यहाँ और परलोक में भी किसी प्रकारका दण्ड न मिले’, ऐसा भाव रहता है। अहित करने वाले को दण्ड देनेकी सामर्थ्य रहते हुए ही क्षमा करना अथवा न करना का भाव हो सकता है। अतः क्षमा सामर्थ्य प्राप्त अहंता का विकार है।

धैर्य: साधक के जब सब कार्य संसार के लिये, संसार कल्याण के लिये होते है, अपने लिये नहीं, तब प्राप्त परिस्थिति में न अनुकूलता होती है न प्रतिकूलता होती है। अतः साधक के सभी कार्य धैर्य पूर्ण होते है। वह कार्य की प्रभावी सिद्धि-असिद्धि से विचलित नहीं होता।

शुद्धि: अन्तःकरण में इन्द्रियों के विषयों में प्रियता राग-द्वेष, ममता, अहंता न होने से सभी विकार समाप्त हो जाते है और अन्तःकरण में हो जाती है।

अद्रोहः किसी के द्वारा अहित हो जाने पर भी सड़क के मन में बदला लेने का भाव नहीं रहती। कारण कि वह अन्यों में स्वयं को और परमात्मा को समान रूप से देखता है। स्वयं में अहंता, ममता, आसक्ति न रहने से उसका अहित होता ही नहीं, तो द्रोहः किस बात का।

मान-सम्मान: साधक को यह ज्ञान होता है कि उसके पास (वस्तु, धन, सामर्थ्य आदि) जो कुछ भी है, वह सब परमात्मा का दिया हुआ है, और वह संसार कल्याण करने के लिये निमित मात्र है। ऐसा ज्ञान होने से उसके मन में अन्यों से मान-सम्मान प्राप्त करने की चाहा नहीं होती।

इस प्रकार पूर्व के इन तीन श्लोकों में उन गुणों का वर्णन हुआ है जिनको देवी सम्पदा प्राप्त है। इन गुण के होने का मूल कारण मनुष्य में राग-द्वेष, कामना, ममता, आसक्ति और अहंकार का पूर्ण रूप से रहित होना है। मनुष्य में राग-द्वेष, कामना, ममता, आसक्ति और अहंकार से पूर्ण रूप से रहित होने पर यह गुण स्वतः सिद्ध है। अन्य शब्दों में यह गुण साधारण मनुष्य जो संसार के बन्धन में है, के लिये तो मान्य है, परन्तु योग स्थित साधक के लिये यह मान्य नहीं है।

सधारणत्या मनुष्य जब इन गुणों को आत्मसाध करने का प्रयत्न करता है तो सफलता प्राप्त करने में कठिनाई होती है। वहीँ साधक राग-द्वेष, कामना, ममता, आसक्ति और अहंकार का त्याग करने के लिये योग करता है, तब यह गुण सरलता से सिद्ध हो जाते है।

देवी सम्पदा प्राप्त मनुष्य के गुणों पर विचार करे तो यह स्पष्ट हो जाता है कि, देवी सम्पदा को प्राप्त मनुष्य के सभी कार्य संसार के कल्याण के लिए स्वत: ही होंगे।

 

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