श्रीमद भगवद गीता : ०९

एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः।

प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः ।।१६-९।।

 

 

उपर्युक्त (नास्तिक) दृष्टिका आश्रय लेनेवाले जो मनुष्य अपने नित्य स्वरूपको नहीं मानते, जिनकी बुद्धि तुच्छ है, जो उग्रकर्मा और संसारके शत्रु हैं, उन मनुष्योंकी सामर्थ्यका उपयोग जगत्का नाश करनेके लिये ही होता है। ।।१६-९।।

 

भावार्थ:

अध्याय १६ श्लोक ८ में आसुर स्वभाव वाले पुरुष जिस अज्ञान को सत्य मानते है, उनको इस श्लोक में अल्प बुद्धि वाला कहा है।

अल्प बुद्धि मनुष्य जब सृष्टि के अधिष्ठान के रूप में श्रेष्ठ और दिव्य परमात्मतत्व (कारण स्वरूपा) का अस्तित्व ही स्वीकार नहीं करता है, तब वह अत्यन्त आत्मकेन्द्रित एवं स्वार्थी बन जाता है। तत्पश्चात् उसके जीवन का एकमात्र लक्ष्य, अधिकाधिक व्यक्तिगत लाभ अर्जित करना होता है। विषय वासनाओं की तृप्ति के द्वारा वह परम सन्तोष और आनन्द प्राप्त करने का सर्वसम्भव प्रयत्न करता है।

आत्मकेन्द्रित एवं स्वार्थी मनुष्य दूसरों का अहित (‘अहिताः’) करनेमें ही लगे रहते हैं और दूसरों का नुकसान करने में ही उनको सुख होता है। उनके कार्य बड़े भयानक (‘उग्रकर्माणः’) होते हैं और वह सरलता से अन्यों का वध कर देते है। उनको अपने से अधिक शक्तिशाली व्यक्ति से तो भय होगा, परन्तु उनको पारमार्थिक भय नहीं होता। उनके पास जो शक्ति, ऐश्वर्य, सामर्थ्य, पद, अथवा अधिकार है, वह सब का सब दूसरों का नाश करने में ही लगता है।

 

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