श्रीमद भगवद गीता : ०६

हट पूर्वक संसारिक क्रिया का त्याग सन्यास नहीं।

 

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।।३-६।।

 

जो कर्मेन्द्रियों- (सम्पूर्ण इन्द्रियों-) को हठपूर्वक रोककर मनसे इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मूढ़ बुद्धिवाला मनुष्य मिथ्याचारी कहा जाता है। ||३-६||

 

भावार्थ:

कार्यों के त्याग को योग समझने वालों को तिरस्कृत करते हुए यह श्लोक कहा गया है।

अध्याय २ श्लोक ५९ एवं अध्याय २ श्लोक ६० में स्पष्टता से वर्णन हुआ है कि, इन्द्रियों के विषयों का त्याग कर लेने पर, और मन से उनका चिन्तन करने से विषयों में आसक्ति बनी रहती है। और इन्द्रियाँ पुनः विषय के सम्पर्क में आने पर बुद्धि उन विषयों में राग-द्वेष कर लेती है।

अब इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण उन विद्वान् साधक को मूढ़ बुद्धिवाला, मिथ्याचारी पद से सम्बोधित करते है जो कर्मेन्द्रियों को हठपूर्वक रोककर, मनसे इन्द्रियों के विषय का चिन्तन करते है।

इसका अर्थ यह नहीं है कि मनुष्य अगर कर्मेन्द्रियों के निग्रह के साथ मन और बुद्धि को भी विषयों के चिन्तन से निवृत्त कर ले तो वह योगी है। योगी वह है जो कर्मेन्द्रियों के सक्रिय रहते हुए मन और बुद्धि को इन्द्रियों के विषय से निर्लिप्त कर ले। योग निवृति का नहीं, निर्लिप्त का विषय है। इसी अज्ञानता के लिये ऐसे साधक को मूढ़ बुद्धिवाला कहा है।

श्लोक के सन्दर्भ मे:

यहाँ कर्मेन्द्रियों पदका अभिप्राय पाँच कर्मेन्द्रियों (वाक, पाणि, पाद, उपस्थ और पायु) के साथ पाँच ज्ञानेन्द्रियों (श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना, और घ्राण) से भी है। क्योकि ज्ञानेन्द्रियों के बिना केवल कर्मेन्द्रियों से कर्म नहीं हो सकते।

मूढ़ बुद्धिवाला (सत-असत के विवेक से रहित) मनुष्य बाहर से तो कर्मेन्द्रियों की क्रियाओं को हटपूर्वक रोक देता है, पर मनसे उन इन्द्रियों के विषय का सेवन, चिन्तन करता रहता है और ऐसी स्थिति को वह कर्म रहित मान लेता है। परन्तु वह यह नहीं जानता कि बाहरसे कर्म रहित दीखने पर भी मन से विषय का चिन्तन करना भोगरूप कर्म है।

बाहर से भोगों का त्याग तो मनुष्य लोक-लिहाजसे और व्यवहारमें गड़बड़ी आने के भय से भी कर सकता है, परन्तु मन से भोग भोगने में बाहरसे कोई बाधा नहीं आती। अतः वह मनसे भोगों को भोगता रहता है और मिथ्या अभिमान करता है कि मैं भोगों का त्यागी हूँ।

अर्जुन भी कर्मों का स्वरूप से त्याग करना चाहते हैं और भगवान से पूछते हैं कि आप मुझे घोर कर्म में क्यों लगाते हैं? इसके उत्तर में यहाँ भगवान कहते हैं कि जो मनुष्य अहंता, ममता, आसक्ति, कामना आदि रखते हुए केवल बाहरसे कर्मोंका त्याग करके अपने को कर्मरहित मानता है, उसका आचरण मिथ्या है।

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