श्रीमद भगवद गीता : ३४

इन्द्रियों के विषय में राग-द्वेष ब्रह्म प्राप्ति में बाधा है।

 

इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।

तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ।।३-३४।।

 

प्रत्येक इन्द्रियके प्रत्येक विषयमें मनुष्यके राग और द्वेष व्यवस्थासे स्थित हैं। मनुष्य को उन दोनोंके वशमें नहीं होना चाहिये; क्योंकि वे दोनों ही इसके (पारमार्थिक मार्गमें विघ्न डालने वाले) शत्रु हैं। ||३-३४||

श्लोक के सन्दर्भ मे:

सर्व प्रथम अध्याय २ श्लोक १४ में वर्णन हुआ है की इन्द्रियों के विषय मनुष्य को निश्चित रूप से सुख और दुःख देनेवाले हैं, परन्तु साथ ही यह अनित्य है (आने-जाने वाले)। अनित्य होने के कारण इनको तुम सहन करो।

अध्याय २ श्लोक १५ में सुख और दुःख को सहन करने से और समता लाने से ही मनुष्य सुख-दुःख रूपी बन्धन से मुक्त होता है, इस प्रकार कहा है।

इसके उपरान्त, जिन विद्वानों का यह विचार होता है कि सुख-दुःख के निवारण हेतु साधक इन्द्रियों के विषय से ही सन्यास प्राप्त कर ले, ऐसे विद्वानों के लिये भगवान अध्याय २ श्लोक ५९ में वर्णन करते है कि, इन्द्रियों के विषय से सन्यास लेने से विषयों में जो राग (रसबुद्धि) है वह समाप्त नहीं होती। विषयों के सम्पर्क में आने पर साधक का पुनः विषय से सम्बन्ध बन जाता है और सुख-दुःख की अनुभूति होती है।

अध्याय २ श्लोक ६० में राग की प्रबलता के विषय में बताया और कहा कि, इस राग का त्याग इन्द्रियों के विषय से सन्यास लेने से नहीं किया जा सकता है। मनुष्य जब इन्द्रियों के विषय के चिन्तन का त्याग करेगा, भोग का त्याग करेगा तभी मनुष्य राग का त्याग कर सकता है (अध्याय २ श्लोक ६१)।

इन्द्रियों के विषय से उत्तपन्न राग और राग से उत्तपन्न कामना का त्याग तभी हो सकता है जब साधक व्यव्हार काल में इन्द्रियों के विषयों का सेवन करते हुए कर्मेन्द्रियाँ, मन और बुद्धि को स्वधर्म पालन, समाज कल्याण हेतु कर्तव्यों का पालन में लगा दे। एकांत काल में साधक इन्द्रियों के विषय का चिन्तन न करके केवल परमात्मा का ही चिन्तन करे। जो मनुष्य इन्द्रियों के विषय का सेवन कामना पूर्ति और भोग के लिये करता है,  तो उसमें राग बना रहता है और उसको सुख-दुःख से निवारण नहीं।

अध्याय ३ श्लोक ६ एवं अध्याय ३ श्लोक ७ में भगवान श्रीकृष्ण उन विद्वानों की मिथ्याचारी, पापाचारी पद से भर्तसना करते है, जो कर्म-सन्यास में विश्वास रखते है और जो हठपूर्वक इन्द्रियों के विषय के सेवन का त्याग करते है। और कहते है कि जो साधक मन से इन्द्रियों के विषय के चिन्तन का त्याग करके, कर्तव्य कर्मों को करता है वह ही श्रेष्ठ है।

अतः इन्द्रियों के विषय में जो सुख-दुःख दिखता है, उसका मूल कारण राग-द्वेष है न की विषय।

भावार्थ:

प्रत्येक इन्द्रिय – (श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और घ्राण) के प्रत्येक विषय -(शब्द, स्पर्श, रूप, रस, और गन्ध) में राग-द्वेष स्थित रहते हैं। इन्द्रीय के विषय मे राग होने से अनुकूलता या प्रियता का भाव होता है और द्वेष होने से प्रतिकुलता या अप्रिय का भाव होता है।

अनुकूलता होने से कामना उत्पन्न होती है और कामना पूर्ति के लिये मनुष्य की कार्य में प्रवृति होती है। द्वेष से कार्य में निवृति होती है। कार्य में प्रवृति और निवृति ही पारमार्थिक कार्यों में विघ्न डालनेवाले शत्रु हैं। अतः साधक को राग-द्वेष के वश में नहीं होना चाहिये। अर्थात राग-द्वेष का त्याग करना चाहिये और उसके लिये भोग और कामना का त्याग करना चाहिये।

भगवान का मत है कि राग-द्वेष का सुगमता पूर्वक वश में करने का उपाय, शास्त्र वहित कर्तव्य-कर्म करने में हैं, न की अपनी कामना पूर्ति के लिये कर्म करने में।

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