श्रीमद भगवद गीता : १०

न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते।

त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः।।१८-१०।।

 

 

जो अकुशल (अशुभ) कर्म से द्वेष नहीं करता और कुशल (शुभ) कर्म में आसक्त नहीं होता, वह सत्त्वगुण से सम्पन्न मनुष्य संशयरहित, मेधावी (ज्ञानी) और त्यागी है। ।। १८-१०।।

 

भावार्थ:

जो कार्य स्वयं के कामना-भोग के कारण शास्त्र निषिद्ध कहे गये है, जिन कार्यों को करने में स्वयं के शरीर को कष्ट/ हानि है, जिन कार्यों में अन्यों का अहित होता हो, इस प्रकार के सभी कार्य सामान्य मानव अकुशल (अशुभ) मानता है। परन्तु यह अकुशल कार्य अगर धर्म पूर्ण है और स्वयं से प्राप्त हुए हो, तो उन अकुशल कार्यों को द्वेष भाव से रहित होकर निश्चय ही करना चाहिये। उनका त्याग नहीं करना चाहिये।

अर्जुन के लिये युद्ध एक अकुशल कार्य था, परन्तु यह यद्ध अर्जुन को स्वयं से प्राप्त हुआ था, और इस युद्ध का होने धर्म की पुनः स्थापना के लिये अनिवार्य था। अतः भले ही यह युद्ध अर्जुन के लिये अकुशल था, अपितु भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को द्वेष भाव से रहित होकर युद्ध करने के लिये कहते है।

सामान्य मानव के लिये जो कुशल (शुभ) कार्य है, वह अगर कर्तव्य रूपसे प्राप्त हुए हो तो उनको आसक्त हुए बिना करना चाहिये।

अतः जो मनुष्य प्राप्त कर्तव्यों को राग-द्वेष, आसक्ति रहित, फलासक्ति रहित होकर तत्परता से करता है, वह सत्त्वगुण सम्पन्न, संशयरहित, ज्ञानी और त्यागी है। जबतक मनुष्य कुशलअकुशलके साथ अपना सम्बन्ध रखता है, तब तक वह त्यागी नहीं है।

 

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