श्रीमद भगवद गीता : १२

अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम्।

भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु संन्यासिनां क्वचित् ।।१८-१२।।

 

 

कर्मफलका त्याग न करनेवाले मनुष्योंको कर्मोंका इष्ट, अनिष्ट और मिश्रित, ऐसे तीन प्रकारका फल मरनेके बाद भी होता है; परन्तु कर्मफलका त्याग करनेवालोंको कहीं भी नहीं होता। ।।१८-१२।।

 

भावार्थ:

कर्म और कर्म के फल में आसक्ति होने पर ही मनुष्य को प्राप्त फल में इष्ट, अनिष्ट और मिश्रित भाव का अनुभव होता है। इष्ट फल की प्राप्ति पर सुख का अनुभव होता है और अनिष्ट फल की प्राप्ति पर दुःख सुख का अनुभव होता है। इस सुख-दुःख का अनुभव मनुष्य अपने जीवन कल में तो करता ही है, मृत्यु होने के बाद भी इन सुख-दुःख की परिकल्पना करता है।

परन्तु जो कर्मफल का त्यागी है, जो कर्म और कर्म फल की आसक्ति से रहित है, उसके लिये फल क्या तो इष्ट, क्या अनिष्ट और क्या ही मिश्रित। उसमें फल को लेकर पूर्ण रूप से समता रहती है। कर्मफल का त्यागी ही संन्यासी हैआसक्ति का त्यागी ही संन्यासी है। 

 

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