श्रीमद भगवद गीता : १४

अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्।

विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम् ।।१८-१४।।

 

 

इसमें (कर्मोंकी सिद्धिमें) अधिष्ठान तथा कर्ता, विविध करण (इन्द्रियादि), विविध और पृथक्-पृथक् चेष्टाएं तथा पाँचवा हेतु दैव (मूल प्रकृति – त्रिगुण) है। ।।१८-१४।।

 

 

भावार्थ:

अध्याय १३ श्लोक ५ चौबीस तत्त्वोंवाला क्षेत्र बताया गया है। अध्याय १३ श्लोक ६ चार प्रकार के विकार (इच्छा, दुवेश, सुख और दुःख) बताये गये है। अध्याय १३ श्लोक १९ में मूल प्रकृति को सभी कार्यों का कारण बताया है।

इस श्लोक में चौबीस तत्त्वों वाले क्षेत्र में जो पाँच महाभूत रूपी शरीर प्राण के साथ है, उसका यहा ‘अधिष्ठान’ पद दिया है।

चेतन तत्व को ‘कर्ता’ पद दिया है। परन्तु चेतन तत्व कार्य होने का कारण है – प्रकाशक है, कर्ता नहीं है।

दस इन्द्रियाँ (पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ – पाचँ कर्मेन्द्रिय), मन, और बुद्धि को ‘करणं च पृथग्विधम्’ कहा है।

दस इन्द्रियाँ, मन, और बुद्धि से होने वाली क्रिया को ‘विविधाश्च पृथक्चेष्टा’ कहा है।

मूल प्रकृति अथार्त तीन गुण (सत्व, रज, तम), चार विकार, एवं अन्तःकरण में इंगित संस्कार को यहा ‘दैव’ पद दिया है।

यह पाँच ही, कारण है सभी क्रियाओं के होने में और उनकी सिद्धि में।

 

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