श्रीमद भगवद गीता : १६

तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः।

पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः ।।१८-१६।।

 

परन्तु ऐसे पाँच हेतुओं के होनेपर भी जो उस (कर्मोंके) विषयमें केवल बुद्धि की अहंता रूपी वकृति को केवल कर्ता मानता है, वह दुर्मति ठीक नहीं समझता; क्योंकि उसकी बुद्धि शुद्ध नहीं है। ।।१८-१६।।

 

भावार्थ:

जितने भी कार्य होते हैं, वे सब अधिष्ठान, कर्ता, करण, चेष्टा और दैव – इन पाँच हेतुओं से ही होते हैं। परन्तु ऐसा होनेपर भी बुद्धि में स्थित विकृति जो स्वयं को चेतना अथवा चेतना का प्रकाशक मानती है और चेतना को शरीर से जोड़ कर देखती है, वह बुद्धि शुद्ध नहीं है।

बुद्धिं से होने वाली क्रिया का प्रकाशक चेतन तत्व है। ‘मैं हूँ’ – इस ज्ञान का प्रकाशक भी चेतन तत्व है, परन्तु इस ज्ञान (‘मैं हूँ’) की अनुभूति बुद्धिं में होती है।

जिस प्रकार इन्द्रियों के विषयों का ज्ञान और मन में उत्त्पन होने वाले भाव का ज्ञान भी बुद्धि को होता है और वह ही इन्द्रियाँ और मन का प्रकाशक है। उसी कारण वश बुद्धि को यह भ्रम होता है कि, स्वयं के होने (‘मैं हूँ’) का ज्ञान जो बुद्धि में हो रहा है उसका प्रकाशक भी बुद्धि है – चेतन तत्व नहीं। और बुद्धि इस चेतना को शरीर से जोड़ कर देखती है।

इसी बुद्धि भ्रम के कारण जड और चेतन का, प्रकृति और पुरुषका जो वास्तविक विवेक है, अलगाव है, उसकी तरफ बुद्धि का ध्यान नहीं जाता। और इस भ्रम-अविवेक के कारण मनुष्य अपने को कर्ता मान लेता है।

विवेक का न होना और भ्रम का बने रहना ही अशुद्ध बुद्धि का वाचक है।

 

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