भावार्थ:
इन्द्रियों के विषय जो आकृति, स्पर्श, ध्वनि, स्वाद एवं गन्ध रूप से है, वह स्मृति रूपसे अन्तःकरण में इंगित रहते है। उसी प्रकार विषय अथवा परिस्थिति के सम्पर्क से होने वाले अनुभवों की स्मृति अन्तःकरण में इंगित रहती है। इसको ही संस्कार कहते है और इस श्लोक में इसको ज्ञान पद दिया है।
शरीर निर्वाह के लिये उत्त्पन्न होने वाली इच्छा का ज्ञान भी ज्ञान है। प्यास की निवृति के लिये जल पीने की इच्छा, भूख के लिये भोजन की इच्छा, शरीर के कष्ट निवारण हेतु उसके उपचार की इच्छा। संस्कार से उत्त्पन्न होने वाली कल्पना भी ज्ञान है।
इन्द्रियों के विषय एवं परिस्थिति जो इन्द्रियों और संस्कार के द्वारा जानने में आती है वह ज्ञेय है।
जिसको इन्द्रियों के विषय एवं परिस्थिति का ज्ञान होता है, वह परिज्ञाता कहलाता है। जो की बुद्धि है।
ज्ञान, ज्ञेय और परिज्ञाता, इन तीनों के होनेसे ही कर्म करने की प्रेरणा होती है। परिज्ञाता को ज्ञेय और ज्ञेय से सम्बन्धित ज्ञान से ही कार्य करने की प्रेणना एवं कार्य होता है।
कार्य की सिद्धि करणं (पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाचँ कर्मेन्द्रिय, मन, और बुद्धि) और करणं से होने वाली क्रिया से होती है। होने वाली क्रिया का ज्ञाता भी परिज्ञाता (बुद्धि) है। परन्तु जब बुद्धि करणं और क्रिया से सम्बन्ध मान लेता है और स्वयं को कर्ता मान लेता तब कर्म, कर्मसंग्रहः हो जाता है। अर्थात् कर्म बाँधनेवाला हो जाता है।
परिज्ञाता (बुद्धि) जब तक सम्बन्ध नहीं मानती, तब तक विषय, परिस्थिति एवं क्रियाओं का वह केवल ज्ञाता मात्र होता है। सम्बन्ध मानने से विषय, परिस्थिति एवं क्रिया में भोग एवं अहंकार उत्त्पन्न होता है।
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