श्रीमद भगवद गीता : ०२-०३

श्री भगवानुवाच

 काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः।

सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः  ।।१८-०२।।

 त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः।

यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे ।।१८-०३।।

 

श्री भगवान् बोले: कई विद्वान् काम्य-कर्मों के त्याग को संन्यास कहते हैं और कई विद्वान् सम्पूर्ण कर्मों के फल के त्याग को त्याग कहते हैं। कई विद्वान् कहते हैं कि कर्मोंको दोषकी तरह छोड़ देना चाहिये और कई विद्वान् कहते हैं कि यज्ञ, दान और तप-रूप कर्मों का त्याग नहीं करना चाहिये। ।।१८-०२।। ।।१८-०३।।

 

भावार्थ:

समाज में विद्वानों द्वारा चार प्रकार के त्याग कहें गये है, जिनको वह परमात्मा प्राप्ति का साधन मानते हैं।

कई विद्वान कामना पूर्ति के लिये किये जाने वाले कार्यों का त्याग सन्यास है। ऐसा कहते है।

कई विद्वान सम्पूर्ण कर्मोंके फलकी इच्छाका त्याग करनेका नाम त्याग है। ऐसा कहते है।

कई विद्वान् कहते हैं कि सम्पूर्ण कर्मों को दोषकी तरह छोड़ देना चाहिये।

अन्य विद्वान् कहते हैं कि दूसरे सब कर्मों का भले ही त्याग कर दें, पर यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों का त्याग नहीं करना चाहिये।

इस श्लोक में विद्वानों द्वारा समाज में सन्यास और त्याग के लिये जो प्रचलित अर्थ है उसका वर्णन है। भगवान् श्रीकृष्ण का इस विषय में क्या मत है इसका वर्णन वे आगे के श्लोक मे करते हैं।

 

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