श्रीमद भगवद गीता : २०

सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते।

अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम् ।।१८-२०।।

 

 

जिस ज्ञानके द्वारा साधक सम्पूर्ण विभक्त प्राणियोंमें विभागरहित एक अविनाशी भाव-(सत्ता-) को देखता है, उस ज्ञानको तुम सात्त्विक समझो। ।।१८-२०।।

 

भावार्थ:

इन्द्रियों के विषय की स्मृति, परिस्थिति एवं प्राणियों को लेकर जो अनुभव है, संस्कार है उस को ज्ञान (अध्याय १८ श्लोक १८ में) कहा गया है। इस ज्ञान में विषय और प्राणी तो अलग-अलग है, परन्तु उन सब विभक्त प्राणियों में केवल एक विभाग रहित, अविनाशी मूल तत्व (परमात्मतत्व) को अनुभव करता है, उसका ज्ञान सात्त्विक है।

 

जैसा की अध्याय १३ श्लोक १६ में भी वर्णन हुआ है, विषय अलग-अलग है, प्राणी और प्राणी के आचरण भी अलग-अलग है, परन्तु जो साधक इस प्रकार विभक्त प्राणियों में राग-द्वेष नहीं करता, उनमें सम भाव रखता है और वह यह जानता है, कि विषय, प्राणी, आचरण का कारण रूप केवल परमात्मतत्व है और वह समान रूप से सबमें व्याप्त है। इस प्रकार का ज्ञान होना ही सात्त्विक ज्ञान है।

अध्याय १३ श्लोक ११ में तत्व ज्ञान ही ज्ञान हैअन्यथा बाकि सब अज्ञान है इसका वर्णन हुआ है। उस तत्व ज्ञान को ही इस श्लोक में सात्त्विक ज्ञान कहा है।

 

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