श्रीमद भगवद गीता : २६

मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः।

सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते ।।१८-२६।।

 

 

जो कर्ता राग रहित, अनहंवादी, धैर्य और उत्साह युक्त तथा सिद्धि और असिद्धि में निर्विकार है, वह सात्त्विक कहा जाता है। ।।१८-२६।।

 

भावार्थ:

वैसे तो कर्ता भाव अहंकार है, अज्ञान है और परमात्मा प्राप्ति के लिये इसका त्याग आवश्यक है, परन्तु जब तक अहंकार भाव नहीं जाता, तब तक कर्ता मे किस प्रकार के भाव हो, वह इस श्लोक मे दिया है।

पदार्थ, परिस्थिति आदिको लेकर अपने में जो एक विशेषताका अनुभव करना है — यह अहंवदनशीलता है।

यह भी अहंकार है जो स्वयं को लेकर के नहीं, अपितु पदार्थ, परिस्थिति को लेकर के है।

 

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