श्रीमद भगवद गीता : ३०

प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये।

बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी।।१८-३०।।

 

 

हे पृथानन्दन! जो बुद्धि प्रवृत्ति और निवृत्तिको, कर्तव्य और अकर्तव्यको, भय और अभयको तथा बन्धन और मोक्षको जानती है, वह बुद्धि सात्त्विकी है। ।।१८-३०।।

 

भावार्थ:

जो बुद्धि पूर्ण रूप से ज्ञान युक्त, समता युक्त है, जिस बुद्धि का विवेक जाग्रत है, वह बुद्धि सात्विक बुद्धि है।

ऐसा होने पर ही सात्विक बुद्धि की कामनाओं से निवृति और कर्तव्यों के प्रति प्रवृति होती है। क्या कार्य करने योग्य है इसका ठीक-ठीक विचार होता है।

संसार में बन्धन क्या है और मोक्ष क्या है, इसका पूर्ण रूप से विवेक होता है।

इस श्लोक में भय और अभय पद मनुष्य के स्वयं के लिये नहीं है। कारण कि शरीर का भय शरीर से सम्बन्ध मानने से होता है। सम्बन्ध नहीं तो भय नहीं।

यहा भय उन कार्यों को करने से जिस कार्य से अभी और परिणाम में संसार का अनिष्ट होनेकी सम्भावना हो। जिस कार्यों से अभी और परिणाममें संसार का अनिष्ट न होता हो, हित कारक हो, वह कार्य अभय करनेवाला है।

 

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