श्रीमद भगवद गीता : ३३

धृत्या यया धारयते मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः।

योगेनाव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी ।।१८-३३।।

 

हे पार्थ! समतासे युक्त जिस अव्यभिचारिणी धृतिके द्वारा मनुष्य मन, प्राण और इन्द्रियोंकी क्रियाओंको धारण करता है, वह धृति सात्त्विकी है। ।।१८-३३।।

 

भावार्थ:

सांसारिक लाभ-हानि, जय-पराजय, सुख-दुःख, आदर-निरादर, सिद्धि-असिद्धि में सम रहने का नाम योग (समता) है।

वह चाहा अथवा इच्छा जिसको प्राप्त करने पर उसका कभी व्य न हो,  वह अव्यभिचार है। सुख, भोग, वस्तु, आदि की किञ्चिन्मात्र भी इच्छा न रखकर केवल परमात्मा को चाहना अव्यभिचार है।

दृढ़, अटल रखने की शक्ति का नाम धृति है।

जिस योगी (समतासे युक्त) की दृढ़ता केवल अव्यभिचार में होती ही है, वह मन, प्राण और इन्द्रियों की क्रियाओं को नियमित किये रहता है।

मन में रागद्वेषको लेकर होने वाले चिन्तन से रहित होना, मन को जहाँ लगाना चाहें, वहाँ लग जाना और जहाँ से हटाना चाहें, वहाँ से हट जाना आदि मन की क्रियाओं को  नियमित करना है।

 

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