श्रीमद भगवद गीता : ३५

यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च।

न विमुञ्चति दुर्मेधा धृतिः सा पार्थ तामसी ।।१८-३५।।

 

 

हे पार्थ! दुष्ट बुद्धिवाला मनुष्य जिस धृतिके द्वारा निद्रा, भय, चिन्ता, दुःख और घमण्डको भी नहीं छोड़ता, वह धृति तामसी है। ।।१८-३५।।

 

भावार्थ:

जिस मनुष्य में दृढ़ता के नाम पर केवल अज्ञान, मूढता की ही अधिकता हो, वह केवल निद्रा, भय, चिन्ता, दुःख और घमण्ड को ही धारण करता है। और उस प्रकार की धृति तामसी है।

यहाँ तीसवें से पैंतीसवें श्लोक तक कुल छः श्लोकों में छः बार पार्थ सम्बोधन का प्रयोग करके भगवान् साधक मात्र के प्रतिनिधि अर्जुन को चेताते हैं कि पृथानन्दन लौकिक वस्तुओं और व्यक्तियों के लिये चिन्ता न करके तुम अपने लक्ष्य को दृढ़ता से धारण किये रहो। अपने में कभी भी राजस-तामस भाव न आने पायें, इसके लिये निरन्तर सजग रहो।

 

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